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________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता की बातों से मानव स्वभाव का इतिहास भरा पड़ा है। धर्मांधता के पीछे मानव समाज, धर्मसेवा समाज, शिक्षक समाज, विद्यार्थी समाज, ब्राह्मण अनेक अमूल्य जाने गयीं, रक्त की नदियाँ बहायी गयीं तथा मानव जीवन समाज आदि । मानव समाज प्राणियों के एक प्रकार को बताता है । धर्म को कष्टमय एवं दुःखमय बना दिया गया । आज पुन: वही स्थिति सेवा समाज, शिक्षक समाज आदि एक विशेष प्रकार के काम करने दृष्टिगोचर हो रही है । परस्पर सम्प्रदायों में राग-द्वेष की भावना, खण्डन- वालों का ज्ञान कराता है। इसी तरह ब्राह्मण समाज से एक विशेष वर्ग मण्डन की बहुलता, खून-खराबा, तीव्र संघर्ष की सम्भावना बहुत अथवा विशेष प्रकार की संस्कृति में पले हुए लोगों का बोध होता है। अधिक बलवती होती जा रही है । इसका मुख्य कारण है धर्म के यथार्थ यद्यपि समाज शब्द में प्रस्तुत प्रयोग अलग-अलग अर्थों को इंगित करते स्वरूप को न समझना । सभी धर्मों के अपने मूल सिद्धान्त होते हैं, जिन्हें हैं किन्तु इनसे इतना स्पष्ट होता है कि 'समाज' शब्द एक प्रकार से रहने आदर्श रूप में जाना जाता है । साथ ही उनकी अभिव्यक्ति के लिए वाले अथवा एक तरह का कार्य करने वाले लोगों के लिए व्यवहार में विभिन्न प्रतीक भी स्वीकृत होते हैं । यथा - मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, आता है। किन्तु आज समाज शब्द का अर्थ ही बदल गया है । आज गुरुद्वारा, जिनालय आदि । आदर्श जब पुराना हो जाता है तो प्रतीक का समाज वह समाज है जिसमें घृणा, द्वेष, छुआ-छूत, जाति-पांति, प्रबल हो उठता है और समाज में प्रतीकों की ही प्रधानता देखी जाती ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भेद-भाव निवास करते हैं । यह सत्य है कि है। आदर्श के निर्बल और प्रतीक के सबल हो जाने पर धर्मान्धता अपना समाज में विभिन्न विचारधारा के व्यक्ति रहते हैं । उनके रहन-सहन, प्रभाव जमाती है जो समाज के लिए अत्यन्त ही घातक सिद्ध होती है। खान-पान, बोल-चाल आदि अलग-अलग होते हैं, लेकिन इनका इसका ज्वलन्त उदाहरण है - मन्दिर-मस्जिद विवाद । यहाँ राम और मतलब यह तो नहीं है कि मानव, मानव से अलग है । दोनों ही मनुष्य मुहम्मद के आदर्शों की बात कोई नहीं करता, परन्तु मन्दिर के घण्टे- हैं, दोनों में मनुष्यता का वास है, फिर ये भेदभाव कैसा ? मनुष्यघड़ियाल तथा मस्जिद के गुम्बद की चर्चा प्राय: सभी लोग करते हैं, समुदाय का नाम ही तो समाज है। जमीन के टुकड़े को समाज नहीं जिसका नतीजा हम लोगों के सामने है। इन सारी समस्याओं का कहते, मकानों का, ईटों का या पत्थरों का ढेर भी समाज नहीं कहलाता समाधान अनेकान्तवाद के पास है। उसके अनुसार महावीर भी हैं, राम और न ही गली-कूचे, दुकान या सड़क आदि का नाम समाज है । यदि भी हैं, मुहम्मद भी हैं, ईसा भी हैं, गुरुनानक भी हैं। हम इलाहाबाद का समाज या वाराणसी का समाज कहते हैं तो इसका एक ओर हम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की बात करते हैं, वहीं दूसरी अभिप्राय होता है इलाहाबाद या वाराणसी में रहने वाला मानव समुदाय। ओर धर्मान्धता का परिचय देते हैं । राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष तो तब होगा जब फिर एक जाति का दूसरी जाति के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के सभी धर्मों को समान आदर प्राप्त होगा। सभी धर्मों को समानता का साथ और एक मोहल्ले का दूसरे मोहल्ले के साथ घृणा और द्वेष क्यों अधिकार तब मिलेगा जब हम भावात्मक एकता और सहिष्णुता की ? एक प्रान्त का दूसरे प्रान्त से, एक देश का दूसरे देश से युद्ध भावना को अपने अन्दर स्थान देगें। भावात्मक एकता एवं सहिष्णुता क्यों? की भावना से हम बड़े प्रेम एवं शान्ति के साथ रह सकते हैं । यदि इस आज जातीयता कम करने का जितना ही प्रयास किया जा रहा भावना पर हम चलें, दूसरों के वक्तव्य में जो सत्य दबा पड़ा है, उसे है वह उतनी ही बढ़ती जा रही । प्राय: यह सुनने में आता है कि यह स्वीकार करें, अपनी ही बात को सत्य मानकर उसे दूसरों पर दुराग्रहपूर्वक ब्राह्मण वर्ग है, यह क्षत्रिय वर्ग है, यह वैश्य वर्ग है तो यह शूद्र वर्ग थोपने का दुष्प्रयास न करें, तो सम्भवत: व्यावहारिक जीवन में सहिष्णुता है। लोग अपना परिचय देते समय भी अपनी जाति का परिचय देने में जागृत होगी और रोज-रोज के अनेक संकट टाले जा सकेंगे । धर्म भी नहीं चूकते । ब्राह्मण यह कहने में गौरव की अनुभूति करता है कि निरपेक्षता का सिद्धान्त भी इसी बात पर बल देता है कि मानव को हम ब्रह्मा के मुख से उत्पत्र हुए हैं, इसलिए हम सर्वश्रेष्ठ हैं । किन्तु अपनी-अपनी भावना के अनुकूल किसी भी धर्म के अनुपालन की ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ब्राह्मण स्वतन्त्रता है । किन्तु सुरसा के मुँह की तरह वर्तमान में फैल रही ब्रह्मा के मुख से निकल पड़े हों बल्कि आप चिन्तन और मनन करते अशांति और समस्याएँ मानव की मानवता को निगलती जा रही हैं. हैं उसका प्रयोग मुख से कीजिए। अपनी पवित्र वाणी से मानव समाज जिसके फलस्वरूप आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक संघर्ष, कलह को लाभान्वित कीजिए । क्षत्रिय वर्ग, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजाओं आदि उभर कर सामने आ रहे हैं । आखिर इन समस्याओं का समाधान से मानी जाती है, का यह अर्थ है कि क्षत्रिय वर्ग अपनी भुजाओं के बल क्या है ? समाधान यदि कोई है तो वह है - अनेकान्त का मार्ग पर निर्बलों की रक्षा करे । वैश्य वर्ग की उत्पत्ति इसलिए हुई कि वह अनेकान्त ही एक ऐसा मूलमन्त्र है जो आज की सभी धार्मिक उलझनों कृषि के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुएँ उत्पन्न कर वाणिज्य के द्वारा उन्हें को सुलझा सकता है। स्थानान्तरित करके सम्पूर्ण समाज को भोजन दे, शक्ति पहुँचाए, लोगों को जीवित रखे । किन्तु यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि वैश्यवर्ग सामाजिक सन्दर्भ में अपनी प्रतिष्ठा को सुरक्षित नहीं रख सका । अर्थ-पिपासा की लालसा सामान्यत: समाज शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग है । यथा- ने उन्हें अन्धा बना दिया है । चौथा वर्ण शूद्र जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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