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________________ १३८ अछूता ही रहेगा। एक मकान के यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान के लिए हमें मकान के चारों तरफ के अलग-अलग चित्र लेने पड़ेंगे तब जाकर हमें मकान की बाह्यकृति का पूर्ण ज्ञान होगा। फिर भी हम उसके अंतरंग भाग के ज्ञान से वंचित रह जायेंगे। अतः पुनः हमें उसके अंतरंग पक्ष के चित्र लेने पड़ेंगे, तब जाकर मकान का हमें पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान होगा। ठीक यही बात विश्व के सम्बन्ध में भी लागू होती है। जब तक हम विश्व का अनेक बिन्दुओं से अनेक पहलुओं से सूक्ष्मतापूर्वक निरीक्षण नहीं करते हैं, तब तक हमें उसके सम्बन्ध में पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान होना असम्भव है । व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के सम्बन्ध में आज यही अपूर्णता घातक सिद्ध हो रही है। क्योंकि व्यक्ति खुद को एवं समाज को जाने बिना ही राष्ट्र एवं विश्व के प्रति अपना मत व्यक्त करने का प्रयत्न करता है । " जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ धार्मिक सन्दर्भ में धर्म और दर्शन, जो सदियों से विविध प्रकार के संतापों से मुक्ति पाने का साधन माना जाता रहा है, मानव हृदय की दुर्बलता एवं संकिता ने उसे भी दूषित कर दिया है। आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग अब तक किया जाता रहा है, आज वही पानी आग लगाने का कार्य कर रहा है तो फिर आग कैसे बुझेगी ? शान्ति की प्राप्ति के लिए धर्म और दर्शन मानव समाज में आए लेकिन वे ही आज अशान्ति के कारण बन गये हैं। एक ओर मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, मन-मुटाव, आशंका के कारण आज राष्ट्र शीतयुद्ध के दौर से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में सर्वत्र ऐसे चिन्तन एवं विचारों की आवश्यकता है जो व्यक्ति-व्यक्ति के बीच समाज- समाज के बीच, राष्ट्र राष्ट्र के बीच समरसता, समन्वय एवं सामञ्जस्य स्थापित कर सके। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए दृष्टि एक ही ओर जाती है और वह है अनेकान्त का सिद्धान्त अनेकान्तवाद ही है जो अनेकता में एकता, अनित्यता में नित्यता, असत्व में सत्व को एक सूत्र में पिरो सकने की क्षमता रखता है । " - आज का युग अन्वेषण एवं परीक्षण का युग है जिसमें अनेक आणविक परीक्षण हो रहे हैं। वैचारिक धरातल पर अनेकान्तवाद का स्थान सर्वोपरि है । अनेकान्तवाद की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। चाहे वह दर्शन का क्षेत्र हो या विज्ञान का, चाहे धार्मिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय । आज के सन्दर्भ में अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया है कि क्या अनेकान्तवाद आज की तमाम समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है ? जहाँ तक प्रासंगिकता का प्रश्न है तो अनेकान्तवाद जितना प्रासंगिक महावीर के काल में था, उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक आज के सन्दर्भ में हो गया है । अतः आज के सन्दर्भ में धार्मिक, वैचारिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी प्रासंगिकता पर दृष्टिपात करना आवश्यक सा जान पड़ता है। Jain Education International 'धर्म' एक व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति, समाज, जाति, देश आदि सभी अन्तर्भूत हो जाते हैं। धर्म के सन्दर्भ में भिन्नभिन्न विचारधाराएँ देखी जाती है। कोई कहता है कि कर्म ही धर्म है, कोई कहता है जीव पर दया करना धर्म है, किसी के अनुसार परमार्थ पथ पर जीवन की आहुति देना धर्म है, कोई कहता है समाज, देश और जाति की रक्षा के लिए आपत्तिकाल में लड़ना धर्म है। परन्तु सही मायने में देखा जाए तो मानव का सम्पूर्ण जीवन ही धर्म क्षेत्र है। मानव धर्म एक ऐसा व्यापक धर्म है जिसका पालन करने से मनुष्य अपना तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण कर सकता है । तात्पर्य यह है कि हमारा जीवन ही धर्म है, सारा विश्व धर्म है हम जो भी कर्म करते हैं, वे सब धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। 1 धर्म प्रगतिशील साधनों और अनुभवों से उत्पन्न एक विमल विभूति है जिसके आलिङ्गन से ही मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। धर्म का कार्य एकता, समानता, पुरुषार्थ आदि गुणों से मनुष्यों को दीक्षित करना है, न कि परस्पर विरोधी उपदेशों से समाज में भेद-भाव उत्पन्न करना, किन्तु आज आधिभौतिक सभ्यता की क्रूरता से जितना मन अशांत है उससे भी कहीं अधिक रूढ़ि और वासनाओं की पूजा ने मन को व्यथित कर रखा है। यह सत्य है कि जीवन की यात्रा अतीत को साथ लेकर ही तय की जा सकती है, उसका सर्वथा त्याग करके नहीं । अतीत जीवन को लेकर ही मनुष्य भविष्य की योजनाएँ निर्धारित करता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि लौटकर अतीत में ही पहुँच जाए। अतीत तो भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। अतः मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह अतीत और वर्तमान के बीच समन्वय स्थापित कर सुन्दर भविष्य का निर्माण करे । जब तक हम प्राचीन आडम्बर एवं आचार-विचारों से चिपके रहेंगे तब तक हमारा वर्तमान भविष्य के निर्माण में समर्थ नहीं होगा। समाज में प्रचलित अंधविश्वासों की विभिन्न भावनाएं न तो प्राचीन हैं और न अर्वाचीन, बल्कि इनकी जड़ तो समाज में धर्मगुरुओं के सम्प्रदाय व स्वार्थ की लोलुपता से फैली है । प्राचीनकाल में साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत बलवती थी । इतिहास इस बात का साक्षी है कि भिन्न-भिन्न युगों में जिन समाजों में लोगों का ध्यान धर्म-केन्द्रित रहा है और धर्म का लोगों के जीवन में आधिपत्य रहा है उनके सभी प्रकार के संघर्षों, नृशंसताओं, यंत्रणाओं आदि का मूल कारण केवल भ्रान्ति रही है। धर्म के ठेकेदारों के मस्तिष्क में यह बात घुस गयी कि केवल उन्हीं का धर्म, विश्वास एवं उपासना पद्धति एकमात्र सत्य है और दूसरे का गलत। केवल वे ही ईमानदार हैं, शेष सभी 'विधर्मी' एवं 'काफिर' हैं। केवल उन्हीं की जीवन पद्धति मोक्षदायिनी है, केवल उन्हीं का ईश्वर सम्पूर्ण विश्व का ईश्वर है, अन्य लोगों के देवगण मिथ्या हैं अथवा उनके ईश्वर के अधीन हैं। इस प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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