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गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण
श्री अभयकुमार जैन
आत्महितैषियों एवं अध्यात्म-जिज्ञासुओं के लिए 'गुणस्थान' सम्पन्न है, पर कर्मावरण से आवृत्त है, जिससे इसके यथार्थ स्वरूप का अध्यात्म के क्षेत्र में जैनदर्शन की अनुपम देन है । आत्म-विकास की दर्शन नहीं होता । जैसे-जैसे कर्मावरण की घटा घनी होती जाती है, भूमिकाओं का इतना वैज्ञानिक तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अन्य दर्शनों वैसे-वैसे आत्मिक शक्तियाँ दबती जाती हैं और जैसे-जैसे कर्मावरण में मिलना असम्भव है । गुणस्थानों में मनोदशाओं का आध्यात्मिक हटता (दूर होता) जाता है, वैसे-वैसे आत्मा की शक्तियाँ प्रादुर्भूत विश्लेषण, चित्तवृत्तियों के क्रमिक उन्नयन का मनोवैज्ञानिक चित्रण, (प्रकट) होती जाती हैं । यह आत्मिक उत्क्रान्ति ही गुणस्थान है ।१० आत्मशोधन तथा आत्म-परिष्कार का यथातथ्य प्ररूपण, आत्मा के जब तक आत्मा कर्मावरण से आबद्ध रहती है, तब तक यह उत्तरोत्तर विकास का सूक्ष्म विवेचन तथा भावधारा के आरोहण-अवरोहण अपनी अविकसित दशा में बनी रहती है तथा जब यह अपने सम्पूर्ण का क्रम बड़ी सूक्ष्मता से निरूपित है। वैदिक, बौद्ध आदि इतर कर्मों का क्षय कर कर्मावरण को बिलकुल हटा देती है तब यह अपने दार्शनिकों ने अध्यात्म की गहराइयों को प्रस्फुटित करने का यद्यपि प्रयास यथार्थ रूप को पा लेती है, उसकी सारी शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। किया है, तथापि जैसा विस्तृत, क्रमबद्ध, सूक्ष्म, साङ्गोपाङ्ग, स्पष्ट और यही उसके विकास की चरम अवस्था है। संसारी जीव अपनी अविकसित तर्कसंगत प्ररूपण गुणस्थानों में है, वह अपूर्व है।
दशा (मिथ्यात्व) से आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करता हुआ गुणों के स्थानों को 'गुणस्थान' कहा गया है- गुणानां स्थानानि विकास की अन्तिम (कर्ममुक्त) अवस्था तक पहुँचने की चेष्टा करता इति गुणस्थानानि । यहाँ गुणों का अर्थ है आत्म-शक्तियाँ और स्थान से है। इसी को आत्मिक उत्क्रान्ति कहते हैं। तात्पर्य है- आत्म विकास की क्रमिक अवस्थाएँ या श्रेणियाँ । 'जीव के कर्मबन्ध या कर्मावरण के कारण यह जीव अपनी आत्मिक स्वभावभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप गुणों के उपचय और अपचय से शक्तियों को प्रादुर्भूत नहीं कर पाता जिससे वह स्वरूपलाभ से वंचित उनके स्वरूप में जो भेद होता है, वह गुणस्थान है ।' कर्मावरण की रहता है । भगवती-सूत्र११ में प्रमाद और कर्मबन्ध के कारण बतलाए गए तीव्रता और मन्दता के फलस्वरूप नाना जीवों के परिणामों में भिन्नता हैं। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा१२ तथा द्रव्यसंग्रह.३ में योग और कषाय को पाई जाती है । गुणस्थान इसी परिणाम-भिन्नता के द्योतक हैं । जैन कर्मबन्ध का कारण कहा गया है । मूलाचार में मिथ्यात्व, अविरति, आचार्यों ने गणस्थान का स्वरूप (लक्षण) ऐसा ही स्थिर किया है- कषाय और योग को कर्मबन्ध का हेतु कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र१५ के
दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के 'उदय', उपशमरे, क्षय, अनुसार मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कर्मबन्ध के हेतु क्षयोपशम", आदि अवस्थाओं से उत्पन्न जिन मिथ्यात्वादि परिणामों के हैं। इनमें कषाय.६, जो मोहनीय का भेद है, कर्मबन्ध का प्रमुख हेतु द्वारा जीव विभक्त किये जाते हैं, वे परिणाम-विशेष गुणस्थान कहे जाते है। सभी कर्मावरणों में मोहनीय का प्राधान्य होने से इसे कर्मों का राजा हैं।' मोह और योग (मन वचन, काय) के निमित्त से सभ्यग्दर्शन, कहा गया है। जब तक इसकी बलवत्ता रहती है तब तक अन्य सभ्यज्ञान और सभ्यक्-चारित्ररूप आत्मा के गुणों की तरतम अवस्था- कर्मावरण भी तीव्र बने रहते हैं और इसके शिथिल होते ही अन्य आवरण विशेष को गुणस्थान कहते हैं। दूसरे शब्दों में मोह और योग की भी शिथिल हो जाते हैं। प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरङ्ग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार- मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । चढ़ाव का नाम ही गुणस्थान है।
दर्शनमोहनीय आत्मा के दर्शनगुण का घात करता है ।१७ यह आत्मा के गुणस्थान आत्मशक्तियों के आविर्भाव की तारतम्यभावापन्न स्वरूप का धान नहीं होने देता । फलतः आत्मा जड़ और चेतन के अवस्थाओं के सूचक हैं, जीव के आध्यात्मिक विकास या पतन के श्रेष्ठ विषय में मूढ़ अविवेकी) ही बना रहता है, स्वपर-विवेक न होने से मापदण्ड हैं। जीव अभी किस स्थिति में चल रहा है तथा यह आत्मिक मिथ्यात्वी ही रहता है। दूसरे, चारित्रमोहनीय के कारण यह जीव स्वपरगणों के विकास की किन भूमिकाओं में प्रवर्तमान है, इसके निश्चायक विवेक पाकर भी पर-परिणति से छूटकर स्वरूपलाभ की ओर प्रवृत्त नहीं ये गुणस्थान हैं । मोक्षप्रासाद पर आरोहण के लिए ये पावन सोपान हो पाता । अतएव चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय का अनुगामी है । हैं। जीव को पतन की (अवगुणों की) ओर से मोड़कर गुण-प्राप्ति की दर्शनमोहनीय के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही चारित्रमोहनीय की
ओर उन्मुख करना और उसे अन्तिम अवस्था (मोक्ष) तक पहुँचाना ही शक्ति भी उसी भाँति क्रमश: क्षीण हो जाती है, जिससे आत्मा के विकास इनका प्रधान लक्ष्य है।'
का तथा स्वरूपलाभ का पथ प्रशस्त होता है, वह स्वरूपलाभ करने स्वभावतः आत्मा अनन्तदर्शन, ज्ञान सुख और शक्ति से लगता है।
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