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________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण की स्थिति के द्वन्द्व को समाप्त करना ही क्यों न रहा हो । एक स्थल द्वन्द्व के प्रकार पर माहवीर मान-अपमान तथा हर्ष और क्रोध के द्वन्द्व की निरर्थकता द्वन्द्व का यदि हम क्षेत्रानुसार वर्गीकरण करें तो इसे कई स्तरों बताते हुए हमें अवगत कराते हैं कि व्यक्ति अनेक बार उच्च गोत्र और पर समझा जा सकता हैं। अनेक बार नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त (अर्थात् उच्च) । अतः स्पृहा न कर । ऐसे में भला आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व है। कौन गोत्रवादी या मानवादी होगा और अपनी स्थिति पर आसक्ति रख इस प्रकार के द्वन्द्व को व्यक्ति अपनी दो परस्पर विरोधी या असंगत सकेगा? इसलिए पुरूष को हर्षित/कुपित नहीं होना चाहिए।५ महावीर इच्छाओं/वृत्तियों के बीच अनुभव करता है ।उदाहरण के लिए जब व्यक्ति हमें अपने द्वन्द्वात्मक स्थितियों के प्रति सदा जाग्रत रहने के लिए अपनी किसी इच्छा की सन्तुष्टि चाहता है और इतर कारणों से यदि इसे प्रोत्साहित करते हैं । वे कहते हैं- अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा सन्तुष्ट नहीं कर पाता तो वह ऐसे ही द्वन्द्व में फँसता है। 'चाहूँ' या 'न जागते हैं। वैर (विरोध) से जिन्होंने अपने को उबार लिया है ऐसे जाग्रत चाहूँ' का यह द्वन्द्व उसे नकारात्मक भावों से भर देता है । इस प्रकार व्यक्ति ही वस्तुत: वीर हैं। मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व विपरीत कामनाओं का और उनकी ४.द्वन्द्व की अवस्था में युगल-भाव विरोध की स्थिति में होते सन्तुष्टि-असन्तुष्टि का द्वन्द्व है। हैं और दोनों ही पक्ष इस विरोध की स्थिति के प्रति अवगत होते हैं। लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि इसके अतिरिक्त विरोध सदैव परस्पर और अन्तरसम्बन्धित होता है । यह भावनाओं से सम्बन्धित द्वन्द्व, जिनका जैन दार्शनिक साहित्य में यथेष्ठ अन्तरसम्बन्ध कुछ इस प्रकार का होता है कि एक पक्ष की हानि, दूसरे उल्लेख हुआ है--इसी प्रकार के मानसिक द्वन्द्वों की ओर संकेत है । इस के लाभ के रूप में या एक का लाभ दूसरे की अपेक्षाकृत हानि के रूप प्रकार के द्वन्द्व में व्यक्ति आन्तरिक रूप से टूट जाता है और समझ नहीं में देखा जाता है। यदि एक का लाभ दूसरे को हानि न पहुँचाए तो द्वन्द्व पाता कि वह क्या करे । की स्थिति बन ही नहीं सकती। यदि एक के लाभ में दोनों का लाभ हो अथवा एक की हानि में दोनों की हानि हो तो स्थिति विरोध की न आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच निर्मित होकर मैत्री की अधिक होगी। अत: कहा जा सकता है कि विरोध की होने वाले द्वन्द्व हैं । इस प्रकार के द्वन्द्व में दो व्यक्तियों के बीच अपनेस्थिति के निर्माण के लिए परस्पर विरोध ही नहीं बल्कि एकांगी अपने वास्तविक या कल्पित हित को लेकर विरोध होता है। इसमें एक दृष्टिकोण होना अत्यन्त आवश्यक है । परस्पर एकांगी दृष्टिकोण अपने व्यक्ति का हित दूसरे के अहित के रूप में देखा जाता है। लाभ में दूसरे की हानि और दूसरे की हानि में अपना लाभ देखता है। जैनदर्शन ने सदैव ही इस दृष्टि का खण्डन किया है, और इस प्रकार सामुदायिक द्वन्द्व, व्यक्ति और समूह (समुदायों) के बीच का एकांगी दृष्टि के त्याग में ही द्वन्द्व के निराकरण को सम्भव बताया है। द्वन्द्व है। ५.द्वन्द्व की परिणति, उपर्युक्त परस्पर एकांगी दृष्टि के कारण अशुभ भावनाओं और भ्रष्ट आचरण में होती है। अशुभ-भावनाओं को आन्तरसामुदायिक द्वन्द्व, दो समूहों (समुदायों) के बीच का जैनदर्शन में 'कषाय' कहा गया है । कषाय-क्रोध, मान माया और द्वन्द्व है। लोभरूपी आत्मघातक विकार हैं । जाहिर है ये सभी अशुभ-भावनाएँ द्वन्द्व की स्थिति में दूसरे पक्ष को हानि पहुँचाने में सहायक समझी गयी संगठनात्मक द्वन्द्व, व्यक्ति और जिस संगठन में वह कार्य हैं लेकिन साथ ही ये आत्मघातक भी हैं । इन भावनाओं से प्रेरित करता है उसके बीच का संघर्ष है। व्यवहार भ्रष्ट व्यवहार है । द्वन्द्व में सदैव ही कोई न कोई उग्र उद्वेग संलग्न होता है जो व्यक्ति को एक विशेष प्रकार के आचरण के लिए आन्तरसंगठनात्मक द्वन्द्र, दो संगठनों के बीच का द्वन्द्व है। प्रेरित करता है और द्वन्द्व में उपस्थित इस उद्वेग का स्वरूप समान्यत: नकारात्मक ही होता है । अत: द्वन्द्व के निराकरण के लिए इन साम्प्रदायिक द्वन्द्व, दो सम्प्रदायों के बीच का द्वन्द्व है। नकारात्मक उद्वेगों को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है । जैन दर्शन जाहिर है द्वन्द्व के उपरोक्त सभी स्तर (प्ररूप) दो पक्षों के में न केवल ऐसे चार उग्र उद्वेगों (कषायों) का वर्णन किया गया है बल्कि विपरीत हित-अहित के विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व है। उनसे मुक्ति के लिए कषायों की विपरीत भावनाओं को विकसित करने जैन दार्शनिक साहित्य में हमें द्वन्द्व के इन सभी स्तरों का के लिए भी कहा गया है।८ क्रमिक विवेचन नहीं मिलता। लेकिन यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि जैनदर्शन द्वन्द्व के इन सभी प्ररूपों में आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व को सर्वाधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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