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द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण
(जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में)
डॉ० सुरेन्द्र वर्मा
द्वन्द्व का अर्थ और स्वरूप
इन युद्धों में ईश्वर उसी को जिताता है जिसके पक्ष में न्याय होता है। आधुनिक मनोविज्ञान और समाज शास्त्र में द्वन्द्व (कंफ्लिक्ट) द्वन्द्व-युद्धों का युग अब समाप्त हो चुका है। अब दो पक्षों एक बहुत महत्त्वपूर्ण अवधारणा है किन्तु द्वन्द्व का स्वरुप, उसका स्तर (व्यक्ति नहीं) के बीच शस्त्र या शोत-युद्ध होते/चलते हैं।
और प्रारुप तथा द्वन्द्व का निराकरण आज भी बहुत कुछ एक समस्या युद्ध के अतिरिक्त 'द्वन्द्व' परस्पर विरोधी युगल भावों को बना हुआ है । प्रत्येक शास्त्र ने द्वन्द्व को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा अभिव्यक्ति देता है । 'द्वन्द्व' के इस अर्थ में कई बातें निहित हैं-- है। मनोविज्ञान जहाँ द्वन्द्व को मूलत: दो वृत्तियों के बीच संघर्ष की स्थिति १. द्वन्द्व बिना 'युग्म' के सम्भव नहीं है। शीत-उष्ण, सख. के रूप में स्वीकार करता है, वहीं समाजशास्त्र द्वन्द्व में निहित दो पक्षों दुःख, इष्ट-अनिष्ट, संयोग-वियोग, ऐसे ही युगल भाव हैं जो द्वन्द्व के के बीच ‘विरोध' पर बल देता है। राजनीति में द्वन्द्व को सशस्त्र -युद्ध या लिए अनिवार्य हैं । ये युग्म विभिन्न क्षेत्रों से उठाएँ जा सकते हैं । शीतयुद्ध के रूप में देखा गया है।
उदाहरण के लिए 'शीत-उष्ण' भौतिक परिवेश सम्बन्धी युग्म है जबकि फादर कामिल बुल्के ने अंग्रेजी-हिन्दी कोश में 'कंफ्लिक्ट' संयोग-वियोग का क्षेत्र सामाजिक है । इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख आदि के तीन अर्थ दिये हैं- युद्ध , संघर्ष या द्वन्द्व तथा विरोध । यह स्पष्ट है व्यक्ति की मनोदशाओं से सम्बन्धित हैं । जैनदर्शन में मनोवैज्ञानिक या कि आज राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र ने मोटे तौर पर आन्तरवैयक्तिक युग्मों का विशेषकर उल्लेख हुआ है । उदाहरण के इन तीनों ही अर्थों को क्रमश: स्वीकार कर लिया है।
लिए एक गाथा लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा क्या प्राचीन भारतीय दर्शन में हमें द्वन्द्व की अवधारणा मिलती और मान-अपमान के प्रति समानभाव विकसित करने के लिए कहती है? हम इस प्रश्न को विशेषकर जैनदर्शन के प्रसंग में देखना चाहेंगे। हैं। महावीर की शिक्षाएँ हमें मुख्यतः प्राकृत भाषा में उपलब्ध हैं। प्राकृत २. युग्म में विरोध-भाव होना आवश्यक है। जिस युग्म में में द्वन्द्व को 'दंद' कहा गया है । प्राकृत -हिन्दी कोश'२ में दंद का एक विरोधी-भाव नहीं होता, वह द्वन्द्व की स्थिति का निर्माण नहीं कर अर्थ तो व्याकरण-प्रसिद्ध उभय पद-प्रधान समास से है। किन्तु स्पष्ट सकता। ऐसे तमाम युग्म गिनाए जा सकते हैं जो एक-दूसरे के पूरक ही यह अर्थ हमारी द्वन्द्व-चर्चा में अप्रासंगिक है। अन्य अर्थ है- होते हैं, विरोधी नहीं। ऐसे 'युग्म' द्वन्द्व को जन्म नहीं देते । द्वन्द्व के १. परस्पर विरूद्ध शीत -उष्ण,सुख-दुःख, आदि युग्म; २.कलह, लिए युग्म का एक दूसरे का पूरक होना अनावश्यक है ।उनका परस्पर क्लेश; और ३.युद्ध । समणसुत्तं के अन्त में जोड़े गए पारिभाषिक शब्द विरोध में होना जरूरी है । सुख और शान्ति का युग्म एक दूसरे का कोश में भी द्वन्द्व को इष्ट-अनिष्ट, दुःख-सुख, जन्म-मरण, संयोग- विरोधी नहीं है, अत: इसमें द्वन्द्व असम्भव है। जैनदर्शन में कई स्थलों वियोग आदि परस्पर विरोधी युगल-भाव द्वारा परिभाषित किया गया है। पर 'सुख और शान्ति' जैसे युग्मों का उल्लेख हुआ लेकिन उन्हें कभी
उपर्युक्त अर्थों के विश्लेषण से द्वन्द्व के दो रूप स्पष्ट होते हैं। द्वन्द्वात्मक स्थिति में प्रदर्शित नहीं किया गया है क्योंकि वे एक दूसरे एक तो द्वन्द्व, युद्ध (या कहें, 'द्वन्द्व-युद्ध') के अर्थ में प्रयुक्त होता है और के पूरक हैं, विरोधी नहीं। दूसरे, वह परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है।
३. द्वन्द्व (और उसके निवारण) के लिए यह आवश्यक है कि दो विरोधी व्यक्तियों या दलों के बीच पूर्वनिश्चित या जाने माने हम 'विरोध' को जाने और समझें, उसके प्रति अवगत हों । जब तक नियमों के अनुसार प्रचलित शस्त्रों द्वारा युद्ध को द्वन्द्व (या द्वन्द्व युद्ध) 'विरोध' की पहचान नहीं होती, द्वन्द्व भी निर्मित नहीं होता। यह बात कहते हैं । ऐसे युद्ध प्राचीन काल में बहुत से देशों में प्रचलित थे । भारत सामाजिक क्षेत्र में उपस्थित द्वन्द्व पर विशेषकर घटित होती है। मानमें वैदिक काल में भी द्वन्द्व-युद्धों का प्रचलन मिलता है। उत्तर वैदिक अपमान, न्याय-अन्याय की स्थितियों में जब तक विरोध 'देखा' नहीं काल में इनके सम्बन्ध में नये नियम बनाकर पूर्व प्रचलित प्रथा में सुधार जाता द्वन्द्व की स्थिति नहीं बन पाती । हजारों साल से शोषित और दलित किया गया । रामायण और महाभारत में द्वन्द्व-युद्धों के अनेक उल्लेख वर्ग समाज में अपने अपमान के प्रति अवगत ही नहीं हो पाते और इस हैं । राम-रावण, बालि-सुग्रीव तथा दुर्योधन-भीम के युद्ध इसके उदाहरण प्रकार यथा स्थिति बनाए रखने में मानों अपना योगदान ही देते हैं। हैं । जो बातें अन्य प्रकार से नहीं सुलझाई जा सकती थीं, उनके निर्णय जैनदर्शन में कई स्थलों पर मान-अपमान की स्थिति के प्रति अवगत के लिए यह नीति अपनाई जाती थी। इसके मूल में यह विश्वास था कि कराने का प्रयास किया गया है --भले ही इसका उद्देश्य मान-अपमान
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