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भगवान् महावीर की साधना
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अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया। प्रयोग ही क्यों, यहाँ तक कहा को ही हिंसा बताया, कर्मबंधन का हेतु कहा, यही उनका अहिंसा के जा सकता है कि अनेकान्त शून्य अहिंसा और अपरिग्रह भी क्षेत्र में अनेकांतवादी चिन्तन था। महावीर को मान्य नहीं थे।
परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में भी महावीर बहुत उदार आप शायद चौकेंगे यह कैसे? किन्तु वस्तु-स्थिति यही और स्पष्ट थे। यद्यपि जहाँ परिग्रह की गणना की गई- वस्त्र-पात्र, है। चूँकि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सत्ता, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक भोजन एवं भवन आदि बाह्य वस्तुओं को, यहाँ तक कि शरीर को भी विचार अनंत धर्मात्मक है। उसके विभिन्न पक्ष होते हैं। उन पहलुओं परिग्रह की परिगणना में लिया गया, किन्तु जहाँ परिग्रह का तात्त्विक
और पक्षों पर विचार किए बिनाः यदि हम कुछ निर्णय करते हैं, तो प्रश्न आया, वहाँ उन्होंने मूर्छाभाव के रूप में परिग्रह की एक स्वतंत्र यह उस वस्तु, तत्व के प्रति स्वरूपघात होगा, वस्तुविज्ञान के एवं व्यापक व्याख्या की। महावीर वस्तुवादी नहीं, भाववादी थे। अत: साथ अन्याय होगा और स्वयं अपनी ज्ञान-चेतना के साथ भी एक उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त बाह्य जड़ वस्तुवाद में कैसे उलझ धोखा होगा। किसी भी वस्तु के तत्त्व-स्वरूप पर चिन्तन करने से जाता? उन्होंने स्पष्ट घोषणा की वस्तु परिग्रह नहीं, भाव (ममता) ही पहले हमें अपनी दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतन्त्र और व्यापक परिग्रह है। मन की मूर्छा, आसक्ति और रागात्मक विकल्प-यही बनाना होगा, उसके प्रत्येक पहलू को अस्ति, नास्ति आदि विभिन्न परिग्रह है, यही संसार का मूल कारण एवं बन्धन है। विकल्पों द्वारा परखना होगा, तभी हम उसके यथार्थ स्वरूप का इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिन्तन के हर नये ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहिंसा और अपरिग्रह के विषय में भी यही मोड़ पर महावीर हाँ और ना' के साथ चले। उनका उत्तर 'अस्तिबात है। इसलिए मैने कहा, कि महावीर के अहिंसा और अपरिग्रह नास्ति' के साथ अपेक्षा पूर्वक होता था। एकान्त अस्ति या एकान्त भी अनेकान्तात्मक थे।
नास्ति जैसा निरपेक्ष कुछ भी उनके तत्त्व-दर्शन में नहीं था। अहिंसात्मक अनेकांतवाद का एक उदाहरण लीजिए। भगवान् अनेकान्तवाद वस्तुत: मानव का जीवन-धर्म है, समग्र महावीर ने साधक के लिये सर्वथा हिंसा का निषेध किया। किसी भी मानव जाति का जीवन-दर्शन है आज के युग में इसकी और भी प्रकार की हिंसा का समर्थन उन्होंने नहीं किया। किन्तु जन-कल्याण आवश्यकता है। समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त अनेकांत की भावना से, किसी उदार ध्येय की प्राप्ति के लिए तथा वीतराग के बिना चल ही नहीं सकेगा। उदारता और सहयोग की भावना जीवन-चर्या में कभी कहीं, परिस्थितिवश अनचाहे भी जो सूक्ष्म या तभी बलवती होगी, जब हमारा चिंतन अनेकान्तवादी होगा। स्थूल प्राणीघात हो जाता है, उस विषय में उन्होंने कभी एकांत भगवान् महावीर के व्यापक चिंतन की यह समन्वयात्मक देननिवृत्ति का आग्रह नहीं किया, अपितु व्यवहार में उस प्राणिहिंसा को धार्मिक और सामाजिक जगत् में, बाह्य और अन्तर जीवन में हिंसा स्वीकार करके भी उसे निश्चय में हिंसा की परिधि से मुक्त माना। सदा-सर्वदा के लिए एक अद्भुत देन मानी जा सकती है। अस्तु, क्योंकि उन्होंने अहिंसा की मौलिक तत्त्व-दृष्टि से बाहर में दृश्यमान हम अनेकान्त को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्व-जन प्राणिवध को नहीं, किन्तु रागद्वेषात्मक अन्तरवृत्ति को, प्रमत्त-योग मंगल की धुरी भी कह सकते हैं।
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