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________________ ४६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ दिशा में अपना कुछ भी योगदान नहीं करता, अपितु मानव-समाज जाता है। कुएं में की गई ध्वनि, प्रतिध्वनि के रूप में वापस लौटती का अहित करता है; तो फिर वह कोई भी कर्म क्यों न हो, अपवित्र है। भगवान् महावीर तो यह भी कहते थे, कि वह और तू, कोई दो है। कर्म का बाह्य रूप पवित्र-अपवित्र नहीं होता, पवित्र अपवित्र नहीं है। चैतन्य-चैतन्य एक हैं जिसे तू पीड़ा देता है, वह और कोई होता है, उसका अपना अन्दर का रूप, कर्ता के मन का वैचारिक नहीं, तू ही तो है। भले आदमी, तू दूसरे को सताता है, तो सचमुच अन्तरंग! अतएव महावीर सामाजिक उत्थान एवं निर्माण के प्रत्येक दूसरे को नहीं, अपने को ही सताता है। इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र कार्य को पवित्र मानते थे। उनकी दृष्टि में मानव अपवित्र नहीं, मानव में आज भी उनका एक प्रवचन उपलब्ध हैका अनाचार, दुराचार अपवित्र था। हिंसा, घृणा, वैर, असत्य, दम्भ, "जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। चोरी, व्यभिचार आदि अनैतिक आचरण अपवित्र हैं, फिर भले ही जिसे तू शोषित करना चाहता है, वह तू ही है। उन दुराचरणों को कोई ब्राह्मण करे, क्षत्रिय करे, वैश्य करे या शूद्र जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।" करे; इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। भगवान् महावीर के दर्शन में यह भगवान् महावीर की अद्वैतदृष्टि है, जो अहिंसा का सदाचार पवित्र कर्म है और दुराचार अपवित्र। ऊँच-नीच की कसौटी मूलाधार है। मनुष्य का अपना नैतिक और अनैतिक जीवन है, न कि जीवनो पयोगी अपने कर्म, अपना पुरुषार्थ, अपना प्रयत्ना वैचारिक अपरिग्रहमहावीर का जीवन-दर्शन अखण्ड चेतना का दर्शन है, भगवान् महावीर ने परिग्रह के मूल मानव-मन को बहुत मानवीय गरिमा का दर्शन है। मानव को मानवरूप में प्रतिष्ठित देखने गहराई से देखा। उनकी दृष्टि में मानव-मन की वैचारिक अहंता एवं का दर्शन है। मानव ही क्यों, वह चैतन्य मात्र को अखण्ड एवं अभेद आसक्ति की हर प्रतिबद्धता परिग्रह है। जातीय श्रेष्ठता, भाषागत दृष्टि से देखता है। उसकी चैतन्यमात्र के प्रति अद्वैत भाव की उदात्त पवित्रता, स्त्री-पुरुषों का शरीराश्रित अच्छा-बुरापन, परम्पराओं का एकत्व-बुद्धि है। अस्तु, जो दर्शन 'एगे आया' का महान् उद्घोष दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहों, मान्यताओं एवं प्रतिबद्धताओं करता है, जो प्राणिमात्र में एक समान आत्मतत्त्व का वास्तविक दर्शन को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह बताया, और उससे मुक्त होने की कराता है, जो यह कहता कि विश्व का समग्र चैतन्य तत्त्व एक जैसा प्रेरणा दी। महावीर ने स्पष्ट कहा, कि विश्व की मानवजाति एक है। है, वह मानव-मानव में स्पृश्य-अस्पृश्य की, ऊँच-नीच की, पवित्र- उसमें राष्ट्र, समाज एवं जातिगत उच्चता-नीचता जैसी कोई चीज अपवित्र की तथ्यहीन मान्यता को कैसे प्रश्रय दे सकता है? नहीं। कोई भी भाषा शाश्वत एवं पवित्र नहीं है। स्त्री और पुरुष आत्म भगवान महावीर का अहिंसा-धर्म एक उच्चकोटि का दृष्टि से एक है, कोई ऊँचा-नीचा नहीं हैं इसी के अन्य सब अध्यात्मिक एवं सामाजिक धर्म है। यह मानव जीवन को अन्दर सामाजिक तथा सांप्रदायिक आदि भेद-विकल्पों को महावीर ने औपाधिक और बाहर-दोनों ओर से प्रकाशमान करता है। महावीर ने अहिंसा बताया, स्वाभाविक नहीं। इस प्रकार भगवान् महावीर ने मानवको भगवती कहा है मानव की अन्तरात्मा को अहिंसा भगवती, चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह बिना किसी बाहरी दबाव, भय, आतंक अथवा प्रलोभन के सहज भाव पर प्रतिष्ठित किया। अंत:-प्रेरणा देती है कि मानव विश्व के अन्य प्राणियों को भी भगवान महावीर के परिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रतियाँ अपने समान ही समझे, उनके प्रति बिना किसी भेद-भाव के आज हमारे समक्ष हैंमित्रता एवं बंधुता का प्रेमपूर्ण व्यवहार करे। व्यक्ति को जैसे अपना १. इच्छाओं का नियमन, अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, वैसे ही अन्य प्राणियों २. समाजोपयोगी साधनों के स्वामित्व का विसर्जन को भी अपना अस्तित्व तथा सुख प्रिय एवं अभीष्ट है- यह सह ३. शोषणमुक्त समाज की स्थापना, अस्तित्वरूप परिबोध ही अहिंसा का मूल स्वर है। अहिंसा 'स्व' ४. निष्काम बुद्धि से अपने साधनों का जनहित में संविभाग-दान, और 'पर' की 'अपने' और 'पराये' की घृणा एवं वैर के आधार ५. अध्यात्मिक शुद्धि। पर खड़ी की गई, भेद-रेखा को तोड़ देती है। अनेकान्त दृष्टिअहिंसा की दृष्टि भगवान् महावीर ने जितनी गहराई के साथ अहिंसा और भगवान् महावीर कहते थे-वैर हो, घृणा हो, दमन हो, अपरिग्रह का विवेचन किया, अनेकान्त दर्शन के चिन्तन में भी वे उत्पीड़न हो-कुछ भी हो-अंतत: सब लौट कर कर्ता के ही पास आते उतने ही गहरे उतरे। अनेकान्त को न केवल एक दर्शन के रूप में, हैं। यह मत समझो, कि बुराई वहीं रह जाएगी, तुम्हारे पास लौटकर किन्तु सर्वमान्य जीवन धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय नहीं आएगी। वह आएगी; अवश्य आएगी कृतकर्म निष्फल नहीं महावीर को ही है। अहिंसा और अपरिग्रह के चिंतन में भी उन्होंने Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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