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भगवान् महावीर की साधना
खाते। उग्र साधना-पथ के अविचल यात्री भगवान् शास्त्रोक्त साधना के है। साधना का अर्थ है- जीवन और मरण दोनों को सँवारना, सुधारना विरुद्ध आचरण करें, यह कैसे हो सकता है? इन शास्त्राग्रही लोगों और ज्योतिर्मय बनाना। को मालूम होना चाहिये, कि महावीर ने किसी सम्प्रदाय में, किसी महावीर के सत्य की खोज परम्परागत पूर्व-विश्वासों के गुरु से दीक्षा नहीं ली थी। वे किसी पुरागत तीर्थ में, शासन में दीक्षित मोड़ पर रुकी न रही, जहाँ कि लोग अक्सर रुक जाया करते हैं। नहीं हुए थे। उनके निर्णय किसी आचार-शास्त्र के आधार पर नहीं, तत्कालीन धार्मिक मूल्यों के प्रति एवं साधना की प्रचलित पद्धतियों अपने सहज-स्फूर्त विवेक के आधार पर होते थे। हम वर्तमान के के प्रति महावीर के मन में व्यामोह नहीं था। शुद्ध सत्य की उपलब्धि शास्त्रों को जिनका संकलन एवं निर्माण महावीर के बहुत उत्तर काल के लिए यह आवश्यक भी है। अपने स्वतन्त्र प्रयोगों से प्राप्तव्य सत्य में हुआ महावीर जैसे सुदूर अतीत के महापुरुषों के साथ जोड़ कर के प्रति श्रद्धा रखने वाले साधक परम्परागत सत्यों की सुरक्षा के भूल करते हैं। महावीर की साधना किसी भी पूर्व विचार या शास्त्र व्यामोह में नहीं फँसते। स्वानुभूति से लभ्य सत्य के साथ उनका आदि से प्रतिबद्ध नहीं थी। इसलिए जैन-साहित्य उन्हें प्रारम्भ से ही, गहरा सम्बन्ध होता है। साधना के सम्बन्ध में महावीर को प्रयोगात्मक प्रव्रज्या-ग्रहण के दिन से ही कल्पातीत मानता है।
पद्धति अभीष्ट थी। मुक्त-साधना पद्धति के द्वारा वे 'स्व' का अनुसंधान ____ कल्पातीत का अर्थ है- कल्प से, विधि-निषेध की अमुक करते रहे, जीवन के अनन्त सौन्दर्य एवं अप्रतिम निरुपाधिक आनन्द सीमाओं में बद्ध शास्त्रीय आचार से अतीत रहना, मुक्त रहना। की खोज करते रहे। नि:संदेह महावीर के ये स्वतन्त्र-प्रयोग सत्य के महावीर की साधनाविधि को तथाकथित किसी भी शास्त्र से जोड़ा उद्घाटन की दिशा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे हैं। क्योंकि जीवन की नहीं जा सकता। उनका साधना-पथ न किसी सम्प्रदाय से बंधा था, यही प्रयोगात्मक स्वतन्त्र खोज एक दिन साध्य से संपृक्त होती है, न किसी गुरु से; न किसी शास्त्र से वह बंधा था, उनके अपने पूर्णता की अभिव्यक्ति का रूप लेती है। अन्तरतम की स्वतन्त्र अनुभूति से। वे पहले के, किसी अन्य के खोजे' महावीर की साधना सत्य के प्रयोग की साधना है। शरीर हए मार्ग पर नहीं चले, अपितु खुद मार्ग खोजते गये, चलते गये। की नहीं, आत्मा के सत्य की साधना हैं। वह साधना जो साधक को जब कहीं संशोधन की जरूरत हुई, तो संशोधन किया, बदलने की बन्धन मुक्त करती है, सत्य का अनन्त प्रकाश दिखलाती है, और जरूरत हुई तो बदला।।
साधक को अनन्त आनन्द की धारा में सदा-सर्वदा के लिए प्रवाहित महावीर की आचार-साधना जड़ नहीं थी, सचेतन थी। करती है। सचेतन साधना गतिहीन नहीं होती है। साधना की सचेतनता ज्ञान पर आधारित है। इस संदर्भ में एक संत ने कहा है- ज्ञान गुरु है, आचार मानवीय गरिमा का दर्शनशिष्य है। आचारको अनुभव-सिद्ध ज्ञान के शासन में चलना होगा, आज के ये छूआछूत, ऊँच-नीच, सवर्ण-अवर्ण आदि कोरे शास्त्रीय जड़ शब्दों के शासन में नहीं। मुक्त चिन्तन ही सत्यान्वेषण जाति-प्रथा के जितने भी दुर्विकल्प है, उनका महावीर के दर्शन में का सच्चा साधन है, बद्ध चिन्तन नहीं। किसी ग्रन्थ विशेष या गुरु कोई स्थान नहीं है। महावीर का दर्शन मानवीय गरिमा का दर्शन है। विशेष को प्रमाण मानने वाला उनके अनुसार चलने वाला प्राथमिक ऐसी कोई भी व्यवस्था, जिसमें मानवीय प्रतिष्ठा का गौरवमय भूमिका पर आरूढ़ साधारण साधक हो सकता है, तीर्थङ्कर नहीं हो विकास सम्भव न हो, महावीर को स्वीकार नहीं है- न जन्म से, न सकता। महापुरुष किसी विशिष्ट विचार पथ के निर्माता या नेता होते कर्म से। सभी मानवों का जन्म से प्राप्त शरीर एक जैसा होता हैहैं, सम्प्रदाय के रूप में चली आयी किसी पूर्व विचार-परम्परा के वही ब्राह्मण का, वही क्षत्रिय का, वही वैश्य का और वही शूद्र आदि अनुयायी नहीं।
का। अत: उसमें पवित्र-अपवित्र और ऊँच-नीच आदि के भेद-प्रभेद महावीर का साधनाकाल विलक्षण घटनाओं से भरा है एक कैसे हो सकते हैं? से एक अद्भुत घटना, परिबोध देने वाली घटना। ऐसी घटना, जैसे अब रहा कर्म का प्रश् । अपने वैयक्तिक जीवन की या सघन अन्धकार में काले बादलों के बीच एकाएक बिजली कौंध जाती समाज जीवन की तथाकथित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए हो! धरती और आकाश को सहसा उद्भासित कर जाती है! साधकों जाने वाले कर्म भी अपने कर्ता के ऊँच-नीचपन के द्योतक नहीं है। के लिए महावीर के जीवन की घटनाएं, ऐसी ही सुख-दु:ख के कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अध्ययन-अध्यापन का काम करता है, अँधियारे में प्रकाश देने वाली हैं, तमसाच्छन्न जीवन-पथ को आलोकित दूसरा नगर की स्वच्छता-सफाई आदि का। क्या अध्ययन-अध्यापन करने वाली है।
अपने में एक पवित्र कर्म है और नगर की स्वच्छता-सफाई आदि
अपवित्र कर्म है? कर्म यदि उपयोगी है, वह सामाजिक कल्याण की प्रयोगवीर : महावीर
दिशा में कुछ प्रगति प्रदान करता है, तो फिर वह कोई भी कर्म क्यों साधना का अर्थ जीवन को नकारना, मरण स्वीकारना नहीं न हो, पवित्र है। यदि कर्म अनुपयोगी है, सामाजिक कल्याण की
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