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________________ भगवान् महावीर की साधना स्व० उपाध्याय अमरमुनि महाश्रमण तीर्थंकर महावीर अपने युग के अपूर्व गृहत्याग का कारण जीवन के प्रति उनकी उदासीनता नहीं अध्यात्मवादी साधक थे। शुद्ध सत्य की खोज में, उन्होंने प्राप्त थीं, जैसा कि प्राय: कुछ साधकों में हो जाया करती है। न परिवार के भोग-विलासों को ठुकरा कर साधना का वह अमरपथ अपनाया, प्रश्नों को लेकर कोई उद्विग्नता थी और न अन्य कोई सामाजिक जो साधकों के लिये एक दिव्य-ज्योति बन गया। आइए, उस असंतोष ही। किसी व्यक्तिगत दु:ख या कुंठा के कारण घर छोड़ा हो, महान साधक के चरण चिह्नों को दृष्टिगत रखकर उनके साधना- ऐसा भी कुछ नहीं है। महावीर के गृहत्याग का यही एक हेतु थापथ का रहस्य उद्घाटित करें। स्व-पर के अनन्त चैतन्य को जगाने का,अनन्त आनन्द के स्रोत को बपचन और किशोर अवस्था के बाद उनका जीवन किन मुक्तद्वार करने का। इसी भाव को आध्यात्मिक भाषा में और अधिक राहों से गुजरा, इस सम्बन्ध में कोई विशिष्ट उल्लेख कथासाहित्य में स्पष्टता से कह सकते हैं- उक्त हेतुओं की छाया में, महावीर का अंकित नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य उनके विवाह की बात गृहत्याग हो गया। करने और होने में अन्तर है। होने में सहजता है, करते हैं और एक पुत्री होने की भी। अपने राष्ट्र की विकास- अनाग्रहता है और करने में कुछ न कुछ आग्रह की, हठ की ध्वनि है। योजनाओं में उन्होंने क्या किया, सर्वसाधारण जनता के अभावों एवं महान् साधकों का साधनाक्रम सहज होता है और होता है निर्द्वन्द! दु:खों को दूर करने की दिशा में उन्होंने अपना क्या पराक्रम इसलिए महावीर का गृहत्याग एक सहज ऊर्ध्वमुखी अन्तः-प्रेरणा दिखाया, राष्ट्र की सीमाओं पर इधर-उधर से होनेवाले आक्रमणों के थी। अनन्त आनन्द की रसधार से जन-जीवन को आप्लात करने की प्रतिकार में उनका क्या महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, ऐसे कुछ प्रश्न है, एक तीव्र संवेदना ही उनके मुनि-जीवन का मुख्य हेतु था। जिनका महावीर के लिखित जीवन-चरित्रों में कोई स्पष्ट उत्तर नहीं पर्वत की कठोर चट्टानों को भेदकर बहने वाले झरने को मिलता। हम यह नहीं मान सकते कि महावीर के जीवन में ऐसा कुछ बना-बनाया पथ कहाँ मिलता है? झरन्य बहता जाता है और पथ भी नहीं हुआ हो, महावीर सहज रूप में प्राप्त अपने वैयक्तिक बनता जाता है। पहले से बने पथ पर बहनेवाली तो नहरें होती हैं, सुखोपभोगों की धारा में ही बह गए हों और लोकमंगल जैसा कुछ निर्झर या नदियाँ नहीं। महावीर भी ऐसे ही अपने साधनापथ के स्वयं भी न कर पाए हों। प्राचीन कथाकारों की, खासकर श्रमण कथाकारों निर्माता थे। आज की भाषा में वे लकीर के फकीर नहीं थे। वे की रुचि कुछ भिन्न रही है। वे प्रथम सांसारिक सुख-समृद्धि की, आज्ञाप्रधानी साधक नहीं, परीक्षा-प्रधानी साधक थे। उनका अन्तरतत्पश्चात् तपत्याग की और कुछ इधर-उधर के दैवी चमत्कारों की विवेक जागृत था, अत: उन्होंने जब जो ठीक लगा, वह किया और बातों को ही अधिक महत्त्व देते हैं, उन्हीं की लम्बी-चौड़ी कहानियाँ जब जो ठीक न लगा, वह न किया। वे एक-दो बार किए, या न लिखते हैं, भले ही वे विश्वास की सीमा से दूर क्यों न चली जाएँ। किये के अन्धदास नहीं हो गये थे। साधना सम्बन्धी उनके परीक्षण उनकी दृष्टि थी कि महावीर राजकुमार थे, अत: उन्होंने अपने देश चलते रहे। स्वीकृत विधि-निषेधों में उचित लगने पर उन्होंने पूरी और समाज के लिए ऐसा जो कुछ भी किया, वह उनका अपना ईमानदारी के साथ परिवर्तन किए। अधिक तो नहीं, पर प्राचीन कर्तव्य था, उसका भला क्या लिखना! तो, तीस वर्ष तक के दीर्घ साहित्य में ऐसे कुछ प्रसंगों का प्रामाणिक उल्लेख मिलता है। प्रारम्भ समय तक, तरुणाई के उद्दीप्त दिनों में, उस महान साधक ने क्या में कभी गृहस्थ के पात्र में भोजनकर लेते थे, किन्तु बाद में वे उसका किया, हमारे लिए कुछ कहना कठिन है। परित्याग कर करपात्री बन जाते हैं। एक बार करुणाद्रवित होकर अपना वस्त्र एक याचक दीन ब्राह्मण को दे देते हैं । एक बार अन्तःप्रेरित साधना-पथ पर वर्षाकाल चौमासे में ही (वर्षा के दिनों में) अन्यत्र विहार कर जाते हैं। स्व की उपलब्धि और स्वनिष्ठ आनंद की खोज ही महावीर ये कुछ बातें ऐसी हैं, जो परम्परागत आचार-शास्त्र की दृष्टि से भिक्ष के चिन्तन का उद्देश्य था। यही एक प्रेरणा थी, जो उन्हें अपना चलता के लिए निषिद्ध हैं। फिर भी महावीर ने ऐसा किया। आया जीवन-पथ बदलने के लिए विवश कर रही थी। यह प्रेरणा उन्हें किसी दूसरे से, तथाकथित किसी धर्मोपदेशक से नहीं मिली। उन्हें किसी कल्पातीत साधकने प्रेरित एवं निर्देशित नहीं किया। यह प्रेरणा उनके स्वयं के अन्दर की आज के कुछ तथाकथित आचारवादी शब्द-शास्त्री महावीर गहराई से उद्भूत थी। महावीर की यह सहज अन्तः प्रेरणा ही भविष्य के जीवन-चरित्र में से उक्त अंशों को निकाल रहे हैं। उनका कहना है की उनकी समस्त उपलब्धियों का मूलाधार है। कि महावीर के ये विधि-निषेध जैन आचरण शास्त्र से मेल नहीं Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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