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________________ AN भगवान् महावीर : समताधर्म के प्ररूपक तत्कालीन धार्मिक समाज में छोटे-मोटे अनेक धर्म-प्रवर्तक थे। किन्तु भगवान् बुद्ध और महावीर का प्रभाव अभूतपूर्व था। उन दोनों सच्चा यज्ञ: के श्रमण-संघों ने ब्राह्मण-धर्म में से हिंसा का नाम मिटा देने का अत्युग्र सच्चे यज्ञ का स्वरूप भगवान् ने यों बताया है - प्रयत्न किया। परिणाम यह है कि कालिका या दुर्गा के नाम पर चढ़ाई जीवहिंसा का त्याग, चोरी, झूठ और असंयम का त्याग, जाने वाली बलि को छोड़कर धर्म के नाम पर हिंसा का निर्मूलन ही हो स्त्री, मान और माया का त्याग, इस जीवन की आकांक्षा का त्याग, गया। पशु-वध के बिना जिन यज्ञों की पूर्णाहुति हो नहीं सकती थी ऐसे शरीर के ममत्व का भी त्याग-इस प्रकार सभी बुराइयों को जो त्याग यज्ञ भारतवर्ष से नामशेष हो गये। पुष्यमित्र जैसे कट्टर हिन्दू राजाओं ने देता है वही महात्यागी है। यज्ञ में सभी जीव का भक्षण करनेवाली उन नामशेष यज्ञों को पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न किया, किन्तु यह अग्नि का कोई प्रयोजन नहीं, किन्तु तपस्यारूपी अग्नि को जलाओ। तो श्रमण-संघों के अप्रतिहत प्रभाव, उनके त्याग और तपस्या का फल पृथ्वी को खोदकर कुण्ड बनाने की कोई आवश्यकता नहीं, जीवात्मा है कि वे हिंसक यज्ञ दीर्घकाल तक जीवित न रह सके। ही अग्निकुण्ड है। लकड़ी से बनी कुण्ड की कोई जरूरत नहीं- मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ही उसका काम देगी। ईंधन जलाकर क्या कर्मवाद: होगा? अपने कर्मों को, अपने पापकर्मों को ही जला दो। यही यज्ञ है __ भगवान् महावीर ने तो मनुष्य के भाग्य को ईश्वर और देवों जो संयमरूप है, शान्तिदाता है, सुखदायी है और ऋषियों ने भी के हाथ से निकाल कर स्वयं मनुष्य के ही हाथ में रखा है। किसी देव इसकी प्रशंसा की है। की पूजा या भक्ति से या खून से तृप्त करके यदि कोई चाहे कि सुख की प्राप्ति होगी तो भगवान् महावीर ने स्पष्ट ही कह दिया है कि शौच : हिंसा से तो प्रतिहिंसा को उत्तेजना मिलती है, लोगों में परस्पर शत्रुता बाह्य शौच का और उसके साधन तीर्थ-जल का इतना महत्त्व बढ़ती है और सुख की कोई आशा नहीं। सुख चाहते हो तो सब बढ़ गया था कि किसी तीर्थ के जल में स्नान करने से लोग यह समझते जीवों से मैत्री करो, प्रेम करो, सब दुःखी जीवों पर करुणा रखो। थे कि हम पवित्र हो गये। वस्तुत: शौच क्या है, उसका स्पष्टीकरण भी ईश्वर में और देवों में या सामर्थ्य नहीं कि वे सुख या दुःख दे सकें। भगवान् ने कर दिया है-धर्म ही जलाशय है और ब्रह्मचर्य ही शांतिअपने कर्म ही सुखी और दुःखी करते हैं । अच्छा कर्म करो, अच्छा दायक तीर्थ है। उसमें स्नान करने से आत्मा निर्मल और शान्त होती है। फल पाओ और बुरा करके बुरा नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहो। ईश्वर या देव- वह तो तुम ही हो। तुम्हारी अनन्तशक्ति, सुख की नई कल्पना : अनन्त ज्ञान, अनन्तसुख प्रच्छन्न हैं। उनको प्रकट करके तुम ही ईश्वर हो भगवान् महावीर ने स्पष्ट ही कहा है कि सांसारिक सुख या जाओ। फिर तममें और मुझमें कोई भेद नहीं, हम सभी ईश्वर हैं। भक्ति काम भोगजन्य सुख सुख नहीं, दुख ही है। जिसका पर्यवसान दुःख या पूजा करना ही है तो स्व-आत्मा की करो। उसे राग और द्वेष, मोह में हो वह सुख कैसा? काम से विरक्ति में जो सुख मिलता है वह और माया, तृष्णा और भय से मुक्त करो- इससे बढ़कर कोई पूजा, कोई स्थायी है, वही उपादेय है। सब काम विषरूप हैं, शल्यरूप हैं। इच्छा भक्ति हो नहीं सकती। जिन ब्राह्मणों को तुम मध्यस्थ बना कर देवों को अनन्त आकाश की तरह है, जिसकी पूर्ति कभी सम्भव नहीं। लोभी पुकारते हो, वे तो अर्थशून्य वेद का पाठ मात्र करते हैं। . मनुष्य को कितना भी मिले, सारा संसार भी उसके अधीन हो जाय, तब भी उसकी तृष्णा का कोई अन्त नहीं। अतएव अकिञ्चनता में जो सच्चा ब्राह्मण: सुख है, वह कामों की प्राप्ति में नहीं। भ० महावीर ने बताया कि सच्चा ब्राह्मण वह है जो अपनी जब सुख की यह नई कल्पना ही महावीर ने दी तो क्षणिक सम्पत्ति में आसक्त नहीं, किसी इष्ट वियोग में शोकाकुल नहीं, तप्त सुख साधनों को जुटा देने वाले उन यज्ञ-यागों का, उन पूजा-पाठों का सवर्ण की भांति निर्मल है, राग-द्वेष और भय से रहित है, तपस्वी धार्मिक अनुष्ठान के रूप में कोई स्थान न रहा। उनके स्थान पर ध्यान, और त्यागी है, सब जीवों में समभाव धारण करता है- अतएव स्वाध्याय, अनशन, रसपरित्याग, विनय, सेवा इन नाना प्रकार की उनकी हिंसा से विरत है, क्रोध-लोभ, हास्य और भय के कारण तपस्याओं का ही धार्मिक अनुष्ठान के रूप में प्रचार होना स्वाभाविक है। असत्य-भाषी नहीं है, चोरी नहीं करता, मन वचन और काय से संक्षेप में, महावीर ने अहिंसामूलक संयममार्ग का प्ररूपण संयत है- ब्रह्मचारी है, अकिंचन है- वही सच्चा ब्राह्मण है। ऐसे किया है जो तपप्रधान है। सच्चा सुख भोग और वैभव में नहीं बल्कि ब्राह्मण के सानिध्य में रहकर अपनी आत्मा का चिन्तन, मनन और तप और त्याग में है, यह उन्होंने अपने जीवन से सिद्ध कर दिखाया। निदिध्यासन करके उसका साधत्कार करो। यही भक्ति है, यही पूजा है आज के विषमता-संकुल वातावरण में भगवान् महावीर का और यही स्तुति है। समताधर्म अत्यन्त श्रेयस्कर है। पर रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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