SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ संयमी और मात्राज्ञ थे। अनार्य देश में उन्होंने विहार किया तब वहाँ अपेक्षा से दिया जाय। यही कल्याणकारी धर्म है। लोगों को शान्ति के अज्ञानी जीवों ने उन पर कुत्ते छोड़े किन्तु वे दुःखों की कुछ भी और सुख, विज्ञान और शक्ति इसी धर्म पर चल कर मिल सकती है। परवाह न करके अपने ध्यान में अटल रहे। हिंसा और धर्म यह तो विरोध है- इसका ज्ञान लोगों को कराना ही इस प्रकार कषायों पर विजय पाने के लिये, दोषों को उनके उपदेश का सार है। निर्मल करने के लिये साढ़े बारह वर्ष तपस्या, द्वारा उन्होंने ४२ वर्ष की उम्र में वीतरागता पाई और 'जिन' हुए, तत्व का साक्षात्कार जैनसंघ : किया और 'केवली' हए तथा हित का उपदेश देकर 'तीर्थकर' बने। उनके उपदेश को सुनकर वीरांगक, वीरयश, संजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन और शंख इन आठ समकालीन राजाओं ने उपदेश: प्रव्रज्या अंगीकार की थी। अभयकुमार, मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारों तीर्थंकर होने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने ब्राह्मण पंडितों को ने भी घर-बार छोड़ कर व्रतों को अंगीकार किया था। स्कंधक प्रमुख अपना शिष्य बनाया। वेद के लौकिक अर्थ में तथा उसके स्वाध्याय अनेक तापस तपस्या का रहस्य जानकर भगवान् के शिष्य बने थे। में ये निपुण थे। किन्तु उसका आध्यात्मिक अर्थ जब भगवान् महावीर अनेक स्त्रियां भी संसार की असारता समझकर उनके श्रमणी-संघ में ने बताया तो उनको पारमार्थिक धर्म का स्वरूप ज्ञात हो गया। यज्ञ शामिल हो गई थीं। उनमें अनेक तो राजपत्रियां भी थीं। उनके गृहस्थ क्या है, यज्ञकुण्ड क्या है, समिध किसे कहते हैं, आहूति किसकी दी अनुयायियों में मगधराज श्रेणिक और कुणिक, वैशालीपति चेटक, जाय, स्नान कैसे किया जाय, इन बातों का अभूतपूर्व स्पष्टीकरण अवन्तीपति चण्डप्रद्योत आदि मुख्य थे। आनन्द आदि वैश्य श्रमोपासकों जब भगवान् ने किया, वेद में आपाततः दिखने वाले कुछ विरोधों के अलावा शकडाल-पुत्र जैसे कुंभकार भी उपासक-संघ में शामिल को तथा उसमें होने वाली शंकाओं को भगवान् ने जब दूर किया, थे। अर्जुनमाली जैसे दुष्ट हत्यारे भी उनके पास वैरत्याग करके तब वेद-निष्णात इन ब्राह्मणों ने भगवान् में एक नई प्रतिभा और शान्तिरस का पान कर, क्षमा को धारण कर दीक्षित हुए थे। शूद्रों प्रज्ञा का दर्शन किया । वेद को जैन-धर्म में एकान्त मिथ्या नहीं कहा और अतिशूद्रों को भी उनके संघ में स्थान था । गया, किन्तु सम्यग्दृष्टी अर्थात् जैन-धर्म के रहस्य का जिसने पान उनका संघ राढ़ देश, मगध, विदेह, काशी, कोसल, किया है, और जो उसमें तन्मय हो गया है उसके लिए वह सम्यक् शूरसेन, वस्स, अवन्ती आदि देशों में फैला हुआ था। उनके श्रति ही है। वेद-वेदांग उन मोघ पुरूषों के लिए मिथ्या सिद्ध होता विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोसल, राढदेश और है जिन्होंने धर्म का यथार्थ स्वरूप नहीं पहचाना है। वत्स देश थे। जिन ब्राह्मणों को अपनी जाति का, अपनी संस्कृत भाषा का, तीर्थंकर होने के बाद ३० वर्ष पर्यन्त सतत विहार करके अपनी विद्वता का अभिमान था उनका वह अभिमान भगवान् के सामने लोगों को आदि में कल्याण, मध्य में कल्याण और अन्त में कल्याण खण्डित हो गया। वे भगवान् के समभाव के सन्देश का लोकभाषा प्राकृत ऐसे अहिंसक धर्म का उपदेश कर ७२ वर्ष की आयु में मोक्षलाभ में प्रचार करने लगे। जिन शूद्रों को धार्मिक अधिकारों से वे पहले वंचित किया। लोगों ने दीपक जलाकर निर्वाणोत्सव मनाया। तब से दिवाली समझते थे उनको भी दीक्षा देकर श्रमण-संघ में स्थान देकर गुरुपद का पर्व प्रारंभ हुआ है ऐसी परम्परा है। अधिकारी बनाया। इतना ही नहीं, हरिकेशी जैसे चाण्डाल मुनि को। इतनी उन्नत भूमिका पर पहुँचाया कि वह ब्राह्मणों का गुरु हो गया,एक चरित्र की विशेषता : समय की बात है कि वह चाण्डाल मुनि यज्ञवाटिका में भिक्षा के लिए भगवान् महावीर के चरित्र की विशेषता अतिशयों में नहीं चला गया, तिरस्कार और अपमान, डण्डों की मार और दुत्कार को थी। जन्म के समय देवलोक से देव-देवियों ने आकर उनका जन्मसमभाव पूर्वक सहन करके भी उसने जब उन यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणों को महोत्सव किया, जन्माभिषेक के समय शिशु महावीर ने मेरुकम्पन अहिंसक यज्ञ का रहस्य बतलाया तब उन ब्राह्मणों ने चाण्डाल मुनि से किया, साधना के समय अनेक इन्द्रादि देवों ने उनकी सेवा करने की क्षमा मांगी और उसकी तपस्या की प्रशंसा की और जातिवाद का इच्छा व्यक्त की, उनके समवसरण में देव-देवियों का आगमन हुआ, तिरस्कार करके उसके अनुयायी बन गये। उनके शरीर में सफेद रक्त था, उनके दाढ़ी-मूंछ न होती थी। ये सब ___भगवान् महावीर ने तीर्थंकर होकर भी अपना अनियत वास तो अतिशय की बातें हैं। ये बातें तो उनके मानवीय चरित्र को कायम रखा । वे और उनके शिष्य भारत में चारों ओर पाद-विहार अलौकिक रूप देने के लिए या भारत के अन्य कृष्णादि महापुरुषों के करके अहिंसा के सन्देश को फैलाने लगे। उनका आदेश था कि पौराणिक चरित्र की प्रतिस्पर्धा में आचार्यों ने उनके चरित्र में रच दी लोगों को शांति, वैराग्य, उपशम, निर्वाण, शौच, ऋजुता, निरभिमानता, हैं। एक सामान्य मानव से एक महापरुष में उनका ऐसा परिवर्तन अपरिग्रह और अहिंसा का उपदेश, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की जिन विशेषताओं से हुआ उन में ही उनकी महत्ता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy