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________________ जैनधर्म और गुजरात के हजारों प्रजाजनों को बंदी बनाया था। उन्हें हीरविजयसूरि के शिष्य भानुचन्द्र उपाध्याय ने बादशाह से बड़ी मुश्किल से शाही हुकुम प्राप्त करके छुड़ाया था। एवं दूसरे भी कई जैनों ने बादशाहों और सुलतानों के पास से गाय-भैंस आदि देश के बहुमूल्य पशुधन की हत्या न हो इसके लिए फरमान प्राप्त किये थे। निःसंदेह ऐसा करके देश की जीवित संपत्ति की समय-समय पर सुरक्षा की थी। इसी तरह के अनेक दृष्टांत है जबकि जैनों ने धर्म के अलावा अपने देश के हित के लिए उतना ही अधिक प्रयत्न और देश की उत्तम सेवा की है। इतिहास का संरक्षण गुजरात के उत्कर्षकालीन इतिहास की स्मृति का संरक्षण भी सबसे अधिक जैनों ने ही किया है यह तो अब सुप्रसिद्ध तथ्य है। मूलराज से लेकर कुमारपाल तक के चौलुक्य महाराजाओं के वंश का सुकीर्तन आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यबद्ध किया है उस वंश के राजर्षि कुमारपाल का धार्मिक जीवन सोमप्रभ, यशः पाल, प्रभाचन्द्र, मेरुतुङ्ग, जयसिंहसूर और जिनमण्डल आदि अनेक जैन विद्वानों ने अन्यबद्ध किया है। प्रभाचन्द्र, मेरुतुङ्ग, राजशेखर आदि प्रबन्धकारों ने मूलराज, भीमदेव, सिद्धराज कुमारपाल आदि राजाओं के यथाश्रुत इतिवृत्तों के अनेक प्रकरण पुस्तकबद्ध किये वस्तुपाल की कीर्तिकथा करने वालों ने वीरधवल बाघेला के वंश को इतिहास में अमर किया है। तदुपरान्त अनेक दूसरे अंधकारों और लेखकों ने अपने-अपने समय के कितने नृपतियों और अमात्यों के बारे में छोटे-बड़े उल्लेखों द्वारा उनके अस्तित्व और समय आदि के विषय में प्रकीर्ण होने पर भी उपयोगी तथ्यों की सामग्री संगृहीत की है जो कि इतिहास की त्रुटित शृङ्खला के मिलाने में अत्यधिक सहायक हो सकें ऐसी है। एक काश्मीर को छोड़ कर हिन्दुस्तान के दूसरे सब प्रदेशों की अपेक्षा गुजरात का मध्यकालीन इतिहास अधिक विस्तृत, अधिक व्यवस्थित और अधिक प्रमाणभूत मिलता है। इस बात का मुख्य यश जैन विद्वानों को ही है। कितने अति आलोचनाप्रिय इतिहास गवेषक जैनों की इस इतिहास सेवा को स्वमतरंजित अतएव अतिशयोक्ति पूर्ण मान कर उसकी वास्तविकता को कम करने के लिये जब कभी प्रयत्न करते नजर आते हैं, तब उस प्रयत्न में इतिहासनिष्ठा की अपेक्षा कुछ साम्प्रदायिक असहिष्णुता का ही अधिक अंश मुझे प्रतीत होता है। इसी से मेरुतुद्र ने जो यह कहा है कि 'तद्वेषी नैव नन्दति वह अधिक सत्य मालूम होता है। वस्तुतः उन सभी ऐतिहासिक जैन सामग्री का हमें प्रामाणिक रूप से ऊहापोह अवश्य करना चाहिए और साधक-बाधक प्रमाणों की कसौटी द्वारा उसके सत्यत्व और मिथ्यात्व की जांच भी करनी ही चाहिए पर साथ ही वह जैन लेखक के द्वारा लिखी गई है या जैनधर्म से सम्बद्ध है इतने मात्र से किसी Jain Education International १८७ उक्ति या कथन को सदा और सर्वत्र शङ्का चिह्न के साथ तो नहीं रखना चाहिए। प्रबन्धकारों का समस्त वक्तव्य सर्वथा इतिहास सिद्ध है ऐसा कोई इतिहासकार नहीं मान सकता। स्वयं प्रबन्धकारों का भी यह दावा नहीं। परन्तु जब तक उसके विरुद्ध कोई सबल प्रमाण हमारे पास न हो तब तक उनके कथन को एक सामान्य इतिहासगर्भित कथन के रूप में यदि स्वीकार कर लिया जाय तो उसमें कुछ अनैतिहासिकता का दोष नहीं है। उन प्रबन्धकारों ने जिस प्रकार जैनधर्म से सम्बद्ध अनेक बातों का संग्रह किया वैसे ही धर्मनिरपेक्ष अनेक बातों का भी संग्रह किया है। इतना ही नहीं, जैनेतर धर्मों की महत्वपूर्ण किंवदन्तियों का भी समानभाव से संग्रह किया है। अतएव उनका हेतु केवल जैन-धर्म की महिमा वर्णन का ही था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, भले ही वह हेतु मुख्य रहा हो फिर भी गुजरात के इतिहास की सर्व साधारण और सार्वजनिक घटनाओं को धन्थबद्ध करने की भी उनकी अभिरुचि अवश्य रही है। मीनल देवी सोमनाथ की महायात्रा करने गई और उस तीर्थ के प्रत्येक यात्री से लिये जाने वाले मुंडकारा से वह अत्यंन्त खिन्न हुई और इससे सिद्धराज द्वारा उसवेरे को बन्द कराके उस महान् तीर्थ की यात्रा को सर्वजन सुलभ बना दिया इस तरह के सर्वसामान्य तथ्यों का मेरुतुल ने अपने प्रबन्धचिन्तामणि में और राजशेखर ने प्रबन्धकोश में जो उल्लेख किया है उसका जैनधर्म के साथ भला क्या सम्बन्ध है? वस्तुतः उन प्रबन्धकारों को देश में प्रचलित पुरानी कथाओं को संगृहीत करने का शौक था इसी से उन्होंने जो कुछ पढ़ा या सुना उसे अपनी पद्धति और रुचि के अनुसार लेखबद्ध करके पुस्तकारूढ़ कर दिया। उस समय के प्रबन्धकारों को न तो हम लोगों की ऐतिहासिक दृष्टि ज्ञात थी और न क्रमबद्ध इतिहास लिखने की पद्धति ही प्रचलित थी। व्यक्ति विशेष के जीवन में कौन सी घटना ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक महत्तव की है और कौन सी सामान्य है उसकी तुलना करने का या उस दृष्टि से उसका उल्लेख करने का उनका तनिक भी प्रयत्न न था। उनका उद्देश्य अधिकांश में उपदेशात्मक लिखने और कुछ अंश में मनोरंजन करने का था। उन ऐतिहासिक घटनाओं को अपने श्रोताजनों के समक्ष वे इसीलिये रखते थे कि श्रोता उपदेशक को जिस वस्तु का प्रतिपादन करना हो उसकी सप्रमाणता स्वीकृत कर सके और उनमें से योग्य उपदेश ग्रहण कर सके। उपदेश के हेतु के बिना कुछ अन्य घटनाओं को वे मात्र प्रसङ्गोचित सभारंजन करने के लिये ही दृष्टान्तरूप से कहते थे और उस दृष्टान्त में कितनी ही व्यक्तियों की किञ्चित् अधिक परिचय देने के लिये उनके जीवन से सम्बद्ध कुछ छोटी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं का भी वे उल्लेख करते थे। इस प्रकार जिन ऐतिहासिक घटनाओं का वे उल्लेख करते थे वे सर्वथा इतिहास संगत ही हैं या कुछ न्यनाधिक है, जिन घटनाओं का सम्बन्ध जिस व्यक्ति के साथ जोड़ा जाता है वह यथार्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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