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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ उपेक्षा की जाय। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। मनुष्य को किसी का कृपाकांक्षी बाधक नहीं, निशीथभाष्य में कहा है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ करके परमात्म-पद को प्राप्त करना है। ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है,।३२ शरीर (ब) मानव मात्र की समानता का उद्घोष- जैनधर्म शाश्वत् आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद, जातिवाद आदि उन उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सार-संभाल भी करना सभी अवधारणाओं की जो मनुष्य-मनुष्य में ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न है। किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होना है, नौका करती थी, अस्वीकार किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति विशेष या साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और सम्पत्ति ही। वह वर्ण, हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है,जो आध्यात्म और भौतिकवाद में रंग, जाति, सम्पत्ति और सत्ता के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का अन्तर करती है। भौतिकवाद में उपलब्धियाँ या जैविक मूल्य स्वयमेव प्रतिपादन करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के १२ वें एवं २५ वें अध्याय साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का में वर्णव्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर करारी साधन हैं। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा वस्तुओं का चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, मेधावी त्याग और ग्रहण, दोनों ही साधना के लिए है। जैनधर्म की सम्पूर्ण और सदाचारी है वही सच्चा ब्राह्मण है और वही श्रेष्ठ है। न कि साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम किसी कुल विशेष में जन्म लेनेवाला व्यक्ति। और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है जो वैयक्तिक एवं सामाजिक (स) यज्ञ आदि बाह्य क्रिया-काण्डों का आध्यात्मिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उसके अर्थ-जैन परम्परा ने यज्ञ, तीर्थ स्थान आदि धर्म के नाम पर किये सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति का नहीं है जानेवाले कर्मकाण्डों की न केवल आलोचना की, अपितु उन्हें एक अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति की संस्थापना है। आध्यात्मिक अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक अतः जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियाँ स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। उसमें कहा गया है कि जीवात्मा उसमें बाधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और जहाँ तक अग्निकुण्ड है; मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान् महावीर ने आचारांग हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ एवं उत्तराध्यनसूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है३५। किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क तीर्थ-स्नान को भी आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करते हुए कहा गया हैहोता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति धर्म जलाशय है, ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से ही भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने आत्मा निर्मल और शुद्ध हो जाती है३६।। विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दु:खद अनुभूति
(द) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में श्रेष्ठता-यद्यपि जैन परम्परा ने धर्म के चार अंगों में दान को स्थान उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष का करना है३३ क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ दिया है किन्तु वह यह मानती है कि दान की अपेक्षा भी संयम ही या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त यह वीतराग के लिए दान करने की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है३७॥ नहीं३४। अत: जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, इस प्रकार जैन धर्म बाह्य कर्मकाण्ड के स्थान पर धर्म जीवन के निषेध की नहीं।
साधना में आत्म तत्त्व की प्रतिष्ठा करता है, यही उसका
अध्यात्मवाद हैं। जैन अध्यात्मवाद की विशेषताएँ
. (अ) ईश्वरवाद से मुक्ति-जैन अध्यात्मवाद ने मनुष्य को सन्दर्भ ईश्वरीय दासता से मुक्त कर मानवीय स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा की है। १. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न तो कोई अन्य शक्ति प्रकाशन, आगरा, १९७२ ३२/९ ही मानव की निर्धारक है। मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। जैनधर्म २. वही, ९/४८ ने किसी विश्वनियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ३. वही, ९/४८ ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना ४ आचारंग, संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्रीआगम प्रकाशन के द्वारा परमात्म दशा को प्राप्त कर सकता है उसने कहा 'अप्पा सो समिति, व्यावर ५/३६,४/२७
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