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________________ जैनधर्म और गुजरात १७७ के विकास में महत्त्वपूर्ण देन दी है। गुजरात ने यदि जैन धर्म को हिन्दू सम्राटों और मुसलमान बादशाहों के सन्तान अपनी नाममात्र की रक्षण और पोषण न दिया होता तो जैन धर्म की अवस्था आज से भी गद्दी संभाल नहीं सके हैं जब कि ये वणिक पुत्र आज तक अपनी दूसरी ही होती। और जैन धर्म ने भी यदि गुजरात के संस्कार विकास गद्दी अखण्डरूप से सुरक्षित रख सके हैं और यही उनकी अद्भुत में विशिष्ट प्रयत्न न किया होता तो गुजराती संस्कृति आज दूसरे ही व्यवहार कुशलता की निशानी है। प्रकार की होती। अणहिलपुर के स्वजातीय सम्राट् गए और दिल्ली के जैन धर्म ने गजरात को जिस प्रकार के अहिंसा, संयम और विधर्मी सुल्तान आए। ये सुल्तान अस्त हए और गुजरात के स्वतन्त्र तप के आदर्श संस्कारों से संस्कृत किया है वैसे संस्कार भारत के बादशाहों का उदय हुआ। ये बादशाह विलीन हुए और मुगल सम्राट दूसरे प्रदेशों को नहीं मिले। यही कारण है जिससे गुर्जर प्रजा में जैसी सत्ताधीश बने। मुगल निस्तेज हुए और मराठा चमकने लगे। मराठा संस्कार समद्धि की एक विशिष्ट प्रभा देखी जाती है वैसी अन्यत्र नहीं निर्वीर्य हुए और अन्त में अंग्रेज इस भूमि के भाग्य विधाता बने। या, प्राणिहिंसा और व्यभिचार जैसे दुर्गुणों से गुजरात की भूमि में इस प्रकार इतनी राजसत्ताएँ खड़ी हुई और धूल गर्जर प्रजा आज अधिकांश में जो मुक्त देखी जाती है और उसमें में मिल गईं किन्तु गुजरात के व्यापार क्षेत्र में और प्रजामण्डल में सुसंस्कारिता की जो एक विशिष्ट छाप देखी जाती है उसका श्रेय उन्हीं गुजरात के वैश्य संतानों की अवाधित सत्ता अखण्ड रूप से अधिकांश में जैन धर्म की प्राचीन विरासत को ही मिलना चाहिए। चालू रही है और यही कारण है कि अब तक गुजरात की धन समृद्धि जैनों ने गुजरात के वाणिज्य-व्यापार, राजशासन, कलाकौशल, योग्यरूप से सुरक्षित है। अतएव इस सुरक्षा कार्य में जैनों का ज्ञानसंवर्धन और सदाचार प्रचार इन सब प्रजाकीय संस्कृति के अंगों महत्त्वपूर्ण योगदान है यह मानना पड़ेगा। में व्यापक रूप से महत्वपूर्ण योगदान किया है। गुजरात के शासन कार्य में जैनों की देन गुजराती 'वणिक' शक्ति और जैन धर्म । गुजरात के व्यापार क्षेत्र की तरह जैनों ने गुजरात के गुजरात की कणिज्य शक्ति और व्यापारिक कुशलता राजशासन कार्य में भी महत्त्वपूर्ण भाग लिया है। इसका साक्षी प्राचीन काल से समस्त भारतवर्ष में सुप्रसिद्ध है। गुजरात के उस स्पष्टरूप से गुजरात का प्राचीन इतिहास है। मन्त्री जाम्ब, सेनानायक व्यापारी वर्ग का अधिकांश जैनधर्मी है। गुजरात के गाँव-गाँव में जैन नेढ, मन्त्रीश्वर दण्डनायक विमल, महामात्य मुन्जाल, सांतू, आशुक, वणिक अपनी सामाजिक और व्यापारिक प्रतिष्ठा सुदूर प्राचीन काल उदयन, आम्बड, बाहड, सज्जन, सोम, धवल, पृथ्वीपाल, वस्तुपाल, से आदर्श रीति से जमाए हुए हैं। गुजरात का जैन वणिक यह 'राष्ट्र तेजपाल, पेथड़ और समराशाह आदि अनके जैन वणिक राजशासन का महाजन' है; और वस्तुत: भूतकाल में उसने अपना वह पद करने वाले हो गए हैं जिन्होंने गुजरात के राजतन्त्र को सुसंगठित, अनेक प्रकार से सार्थक सिद्ध किया है। अणहिलपुर की स्थापना से सुप्रतिष्ठित और सुव्यवस्थित करने में अद्भुत बुद्धिकौशल और लेकर आज तक के गुजरात के सामाजिक-राजकीय इतिहास का यदि रणशौर्य प्रदर्शित किया है। जैन वणिकों ने अपने राजनीतिप्रवीण हम अवलोकन करें तो पता लगेगा कि इन बारह शताब्दियों जितने प्रतिभा कौशल के द्वारा अणहिलपुर की एक छोटी सी जागीरदारी को समय में गुजरात की वणिक प्रजा में से अनेक राजनीतिज्ञ, मन्त्री, महाराज्य की प्रतिष्ठा समर्पित की और गुर्जर देश, जिसकी भारत में शासनकर्ता, सेनापति, योद्धा, व्यापारी, दानेश्वरी, विद्वान्, कलाप्रेमी, कुछ भी विशिष्ट ख्याति न थी, उसे एक बलवान् और सुविशाल राष्ट्र त्यागी और प्रजाप्रेमी उत्पन्न हुए है उनकी नामावली अंगुलि के सहारे होने का अक्षय गौरव दिलाया है। लाट, आनर्त, सौराष्ट्र, अबुर्द तथा गिनी नहीं जा सकती। उन 'महाजनों' की संख्या सैकड़ों की नहीं कच्छ इन सभी इतिहास प्रसिद्ध और जग विख्यात समृद्धि पूर्ण किन्तु हजारों की है। प्राचीन प्रदेशों को अणहिलपुर के एकछत्र के नीचे सुसंबद्ध करने में इस बारह शताब्दी के महायुग में गुजरात की सार्वभौम तथा एक संस्कृति और एक भाषा द्वारा उन सब प्रजाओं को आपसी सत्ताधारी ऐसी दो राजधानियाँ हुई है- प्रथम अणहिलपुर- पाटण प्रान्त-भेद भूल करके एक गुर्जर महा प्रजा के रूप में सुसंगठित और दूसरा अहमदाबाद। अणहिलपुर का प्रथम नगरसेठ विमल करने में जैन व्यापारी और शासनकर्ताओं ने जो भाग लिया है वह पोरवाड ज्ञाति का जैन वणिक था और अहमदाबाद का विद्यमान नगर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है इसमें शंका को स्थान नहीं है। सेठ भी ओसवाल जाति का जैन वणिक ही है। गुजरात के इन दो पाटनगरों के इन आद्यन्त सेठों के बीच अन्य सैकड़ों सेठ हो गये जो वैश्य कौम और जैन धर्म प्राय: जैन ही थे। जैन धर्म के पालन करने वालों में अधिकांश वैश्यों का है। काल के महा प्रभाव से टक्कर लेकर गुजरात के चक्रवर्ती जैन-धर्म की अहिंसा की भावना जितनी वैश्यों के लिये अनुकूल है Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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