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________________ १७६ की संकुचित भावना के कारण हिन्दू जाति सैकड़ों और हजारों उपजातियों में बँट गई है। यहां कारण है कि हिन्दू जाति दुनिया की दृष्टि में सामर्थ्य और शक्ति से शून्य संगठनहीन एक मानव समूह के रूप में प्रसिद्ध हो गई है। धर्म को संकीर्ण वृत्ति के कारण हो हम जाति और परिवारों में भी पारस्परिक एकरूपता उत्पन्न नहीं कर सकते, संगठन नहीं कर सकते, तो समस्त महाप्रजा की तो बात ही क्या करना ? जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ ये और ऐसे नाना प्रकार के विचार अद्यतन विचारशील और उत्कर्षाभिमुख नवयुगीन प्रजा को धर्म के विरोध में उपस्थित होने की प्रेरणा दे रहे हैं और उससे धार्मिक क्षेत्र में जो कुछ सारभूत और लाभकर्ता तत्त्व अन्तर्हित हैं उनका भी शुष्क के साथ हरा भी जलता है इस न्याय से, उच्छेद करने के लिए आज का युवकवर्ग उत्सुक रूढ़ हो रहा है। दूसरी ओर इसके प्रत्याघात रूप में धर्म के रूढ़ और मूढ़ उपासक, धर्म का जो सारहीन, सिर्फ बाह्य आवरण रूप भाग है उसी को धर्म की आत्मा मानकर उसी की रक्षा में और जो रक्षणीय है उसकी उपेक्षा में ही धर्म की रक्षा की इतिश्री मान रहे हैं। धर्म की यह विडम्बना, धर्म के यथार्थ तत्त्व के विषय में जो व्यापक अज्ञान प्रजा में शताब्दियों से बद्धमूल है, उसी का आभारी है। जिस धर्म को प्रजाको प्रगति का विरोधी माना जाता है वह वस्तुतः तात्त्विक शुद्ध धर्म नहीं है किन्तु उसका विकृत रूप मात्र है। प्रत्याघाती लोग जिस धर्म का आचरण करके धार्मिक होने का दम भरते हैं वह धर्म का कोई सनातन तत्त्व नहीं है किन्तु प्रसंगानुसार केले के छिलके के समान फेंक देने के योग्य धर्म का एक निःसार अङ्ग है। प्रकृति में विकृति को उत्पन्न करना यह कालधर्म है। किन्तु उस विकृति को दूर कर पुनः प्रकृति को शुद्ध करना मनुष्य का परुषार्थ धर्म है। इस न्याय से धर्म के स्वरूप में कालकृत विकार भाव उत्पन्न होता ही है और उस विकार का नाश भी विचारशील पुरुषार्थियों के द्वारा होता ही है। भगवद्गीता के " यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।" इस सुप्रसिद्ध श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने जो भाव व्यक्त किया है वह इसी नियम को लक्ष्य करके ही है। धर्म की शुद्ध प्रकृति क्या है और विकृति क्या है, इस बात की चर्चा करने का यहाँ उद्देश्य ही नहीं है और अवकाश भी नहीं है। हमें इसका यथार्थ ज्ञान, संसार के धार्मिक इतिहास का निरपेक्ष अवलोकन करने से हो सकता है, यही कहने का यहाँ उद्देश्य है। जैन धर्म की विडम्बना जैसी स्थिति हमारे देश के सभी धर्म और समाजों की है वैसी ही जैन धर्म और समाज की भी है। जैन भी आज अपने धर्म Jain Education International 1 के सिद्धांत और समाज के नियमों में देश काल की परिस्थिति के अनुकूल कुछ परिवर्तन हो तो उन्हें शंका और भय की दृष्टि से देखते हैं और रूडिचुस्त सत्ताप्रिय वर्ग उन परिवर्तनों का विरोध करता है। पुराना तो सभी कुछ सच्चा और अच्छा, ऐसी उसकी मान्यता है। प्राचीन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह सब स्वयं भगवान् महावीर ने ही कहा है और उसमें कुछ भी परिवर्तन या संशोधन को अवकाशं नहीं है। जैसे प्रत्येक धर्म में वैसे जैन धर्म में भी अनेक सम्प्रदाय उत्पन्न हुए हैं और वे एक दूसरे को जैनाभास मानते और कहते हैं और सिर्फ अपने ही को भगवान् महावीर के सच्चे और शुद्ध अनुयायी समझते हैं। यह सब ऐतिहासिक ज्ञान के अभाव का फल है। जैनों के विषय में अन्य धर्मानुयायी वर्ग में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की नाना मिथ्या कल्पनाएं और भ्रमणाएँ विद्यमान है कोई उसे नास्तिक मत मानते हैं, कोई बौद्धधर्म की शाखा समझते हैं। और कोई तो उसे विदेशी कहने की भी धृष्टता करते हैं। विदेशी लेखकों का अन्धानुकरण करने वाले विद्वान् इस्लाम की तरह जैन धर्म को भी एक बिलकुल भिन्न ही आचार-विचार वाला और इसी से हिन्दू प्रजा या जाति से बिलकुल स्वतन्त्र भावना वाला धर्म है यह मान करके उसकी चर्चा करते हैं। कुछ को तो जैन धर्म के नाम से ही चिढ़ हैं। वे तो यही कहते हैं कि जैनों की अहिंसा भावना ने ही भारत में 'कायरता उत्पन्न की है और इसी कारण से आर्यप्रजा पौरुष को गवाँ कर विधर्मी शत्रुओं से लोहा न ले सकने के कारण पराधीन हुई है। जैन धर्म के विषय में ऐसी जो नाना प्रकार की भ्रमणाएं फैल रही हैं उसका कारण भी ऐतिहासिक ज्ञान का अभाव ही है। इन सब विषयों की चर्चा करना आवश्यक होने पर भी प्रस्तुत व्याख्यान में अवकाश नहीं है इससे इतना सुचन मात्र करके मै गुजरात के जैन धर्म के विषय में कुछ सिंहावलोकन करने का प्रयत्न करता हूँ। गुजरात और जैन धर्म का सम्बन्ध गुजरात आज जैन धर्म का विशिष्ट केन्द्रभूत स्थान है जैनों संख्या और शक्ति जितनी गुजरात में दीखती है उतनी हिन्दुस्तान के किसी अन्य प्रदेश में नहीं दीखती जैनों की धार्मिक और सामाजिक ऐसी सब प्रवृत्तिओं में जो जागृति गुजरात में देखी जाती है वह अन्य किसी प्रदेश में नहीं है। जैन दृष्टि से गुजरात को ऐसा प्राधान्य वर्तमान काल में ही प्राप्त हुआ है ऐसा नहीं है। उसका इतिहास तो गुजरात के प्रजाकीय विकास के इतिहास जितना ही प्राचीन है। गुजरात के प्राचीन सांस्कृतिक विकास का और जैन धर्म के विकास का परस्पर महत्वपूर्ण गाढ़ सम्बन्ध है। गुजरात की जैन धर्म के विकास में महत्वपूर्ण देन है और इसी प्रकार जैन धर्म ने भी गुजरात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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