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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ सकता है जो अपेक्षाकृत कम कठोर और उग्र होती है । बौद्ध ध्यान विनाश होता रहता है। उत्पादन और विनाश की यह प्रक्रिया मनुष्य के साधना के सम्बन्ध में डॉ. राधाकृष्णन का यह कथन द्रष्टव्य है-"यद्यपि दुःख का मूल कारण है। यही क्लेश को उत्पन्न करते हैं और ये क्लेश बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है दूषित सन्तति परम्परा के जनक माने गए हैं । इस दूषित सन्तति परम्परा कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित के अवगुणों को जानना एवं उनसे बचने के उपायों का चिन्तन करना अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है । यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि ही प्रज्ञा है, यही विपश्यना है। इसे जान लेने पर साधक यह समझ से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, लेता है कि यह सास्रव धर्म दुःख है । वह क्लेशरूप सन्तति परम्परा तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है२६ ।" के दोषों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इस अवस्था डॉ० राधाकृष्णन का यह कथन बौद्ध साधना पद्धति में ध्यान के महत्त्व में वह निरन्तर सम्यक् ज्ञान का अभ्यास करता है और अन्तत: अर्हत् का परिचायक है। पद को प्राप्त कर लेता है । अर्हत् पद ही बौद्ध परम्परा में परम ध्येय जहाँ तक बौद्ध साधना के दिग्दर्शन का प्रश्न है तो यह शील, है और वस्तुत: ध्यान साधना का यही पूर्ण आध्यात्मिक लक्ष्य माना जा समाधि और प्रज्ञा इन त्रिविध साधना पद्धतियों के रूप में जाना जाता है। सकता है । इन्हीं त्रिविध साधना मार्ग में सम्पूर्ण बौद्ध साधना को समाहित माना गया बौद्ध परम्परा में समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, है। शील, ध्यानाभ्यास का आधार है क्योंकि शील में प्रतिष्ठित होने पर विपश्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठाण, प्रधान, निमित्त, आरम्भ लक्खण ही समाधि की भावना सम्भव है २७। इसकी महत्ता को प्रतिपादित करते जैसे शब्द ध्यान के लिए प्रयुक्त किये गए हैं ।३१ यहाँ हम पाते हैं कि हुए कहा गया है कि शील में प्रतिष्ठा के बिना कुलपुत्रों का बौद्ध शासन समाधि और ध्यान दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं, यह सत्य भी लगता में प्रवेश नहीं हो सकता है। बौद्ध शासन में प्रविष्ट होने के लिए शील है। लेकिन बौद्ध परम्परा में दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुए भी इनमें का आचरण परमावश्यक है, क्योंकि उसके बिना समाधि की प्राप्ति सूक्ष्म अन्तर पाया जाता है । विद्वानों की मान्यता है कि ध्यान का परिक्षेत्र सम्भव नहीं है और समाधि कुशलचित्त की एकाग्रता है। काम एवं समाधि की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत है । कारण समाधि जहाँ मात्र अकुशल धर्मों का परित्याग किए बिना ध्यान समाधि को सिद्ध नहीं कुशल कर्मों से सम्बद्ध है, वहीं ध्यानं कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार किया जा सकता है । काम के परित्याग से काम-विवेक एवं अकुशल के भावों को ग्रहण करता है ।३२ क्षेत्र विस्तार के इस अन्तर के बाद भी कर्म के परित्याग से चित्त-विवेक की उत्पत्ति होती है । इस कारण से इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अर्हत् पद की प्राप्ति के हम अपनी तृष्णा एवं क्लेश को समझ पाते हैं । हम यह जान लेते हैं लिए कुशल और अकुशल कर्मों के विभेद को जानकर कर्म परम्परा से कि समस्त अनर्थों की जड़ यही तृष्णा एवं क्लेश है । हम जितना मुक्त हुआ जाता है। इन दोनों प्रकार के कर्मों के स्वरूप को समझने अधिक अपनी तृष्णा और क्लेशों के पीछे भागेंगे वह उतनी ही अधिक के लिए तथा इनसे मुक्त होने के लिए ध्यान एवं समाधि दोनों का तीव्रता से अपने संहारक रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती रहेगी । यह अभ्यास आवश्यक माना गया है। दूसरी बात है कि हम तृष्णा के सहारक रूप को नहीं समझ पाते हैं, बौद्ध-परम्परा में ध्यान के मूलत: दो भेद हैं३३ - (क) आरम्भ फलतः हम निरन्तर उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और उपनिज्झाण और (ख) लक्खण उपनिज्झाण । आलम्बन पर चिन्तन सांसारिक दु:ख सागर में डूबते-उतराते रहते हैं।। करने वाला ध्यान है, जबकि लक्खण उपनिज्झाण में लक्षणों पर चिन्तन साधक तृष्णा और क्लेश से मुक्त होने पर समाधि की स्थिति किया जाता है । आरम्भ उपनिज्झाण आठ प्रकार का है- चार रूपावचर को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए काम-विवेक एवं चित्त-विवेक और चार अरूपावचर । ये सभी लौकिक ध्यान के अन्तर्गत समाविष्ट आवश्यक है । काम-विवेक की सहायता से तृष्णा को तथा चित्त-विवेक होते हैं, जिसके मार्ग को शमथयान कहते हैं । लक्खण उपनिज्झाण से अकुशल कर्म के त्याग की प्रवृत्ति का विकास होता है । यह अकुशल लोकोत्तर ध्यान है और उसका मार्ग विपश्यनायान के रूप में जाना जाता पतित्याग क्लेश को नष्ट करता है । जब व्यक्ति की तृष्णा एवं क्लेश है । प्रथम आठ ध्यानों से अभ्यास करके साधक कर्म-संस्कारों को नष्ट हो जाते हैं तो व्यक्ति अपने चपल-भाव एवं अविद्या का विनाश निर्जरित करता है, राग-द्वेष को क्षीण करता है फिर भी अति गहरे कर्मकरता है। व्यक्ति के चपल-भाव एवं अविद्या का मूल कारण उसकी संस्कार के बीज नष्ट नहीं हो पाते हैं । ये कभी भी उभर सकते हैं और राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति को माना गया है। अकुशल परित्याग की सहायता साधक को उसके मार्ग से गिरा सकते हैं । अत: इनका समूल नाश होना से व्यक्ति राग-द्वेष को अल्पतम कर लेता है और मोह की अवस्था से आवश्यक है और उसके लिए लोकोत्तर ध्यान का अभ्यास आवश्यक विरत होकर जीवन जीना प्रारम्भ करता है । मोहविरत व्यक्ति अपने है। क्योंकि इनका समूल रूप से विनाश इसी की साधना से सम्भव है। चपल-भाव को संयमपूर्वक कम करता जाता है, एकाग्रचित्त से कुशल जब साधक के सम्पूर्ण कर्म-संस्कार नष्ट हो जाते हैं, राग-द्वेष की सम्पूर्ण कर्मों का आश्रय लेकर समाधि भाव को प्राप्त करता है । पञ्चस्कन्धों वृत्ति समाप्त हो जाती है तब वह निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। बौद्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान) का क्षण-क्षण उत्पादन एवं मान्यता में निर्वाण की अवस्था को दु:खों के अत्यन्त निरोध की अवस्था Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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