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________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण नहीं है। ऐसा कोई कथन नहीं है जो पूर्णत: सत्य या पूर्णत: मिथ्या हो। हैं जब हम कुल मिलाकर अपने मानसिक गठन को इनके उपयुक्त बना सभी कथन एक दृष्टि से सत्य हैं तो दूसरी दृष्टि से मिथ्या हैं। इस प्रकार सकें । कैट्स और लॉयर ने परस्पर विरोधी हितों पर आधारित द्वन्द्व के अनेकान्तवाद हमें स्याद्वार की ओर स्वत: ले जाता है। निराकरण हेतु जिस ओवरऑल फ्रेम (व्यापक मनोगठन) की चर्चा की यदि वस्तुस्थिति वास्तव में अनेकांतिक है तो यह आवश्यक है उसमें चार तत्त्व महत्त्वपूर्ण बताए गए हैं। ये हैं-- है कि हम वस्तु से सम्बन्धित अपने कथन में 'स्यात्' शब्द जोड़ दें। एक दूसरे के लिए सम्मान और न्यायप्रियता (Respect वस्तुओं की अनन्त जटिलता के कारण कुछ भी निश्चित रूप से नहीं and Integrity) कहा जा सकता । बेशक इसका यह अर्थ नहीं है कि हम कोई कथन सौहार्दपूर्ण सम्पर्क (Rapport) कर ही नहीं सकते हैं। हाँ निरपेक्ष या एकान्तिक कथन असम्भव है। साधन सम्पन्नता (Resourcefulness) वस्तु का गत्यात्मक चरित्र हमें केवल सापेक्षिक या सोपाधिक कथन एक रचनात्मक वृत्ति (Constructive attitude) करने के लिए ही बाध्य करता है। सम्मान और न्यायप्रियता का अर्थ है कि हम द्वन्द्व की स्थिति जैन दार्शनिकों ने अपने इस सिद्धान्त को उस हाथी के द्वारा में दूसरे पक्ष के विरोधी आचरण के बावजूद उसके लिए एक सकारात्मक समझना चाहा है जिसके बारे में कई अन्धे व्यक्ति अपना- अपना कथन दृष्टि को बनायें रखें । हम उसके व्यवहार को भले ही अच्छा न समझें कर रहे होते हैं और वे अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। उनमें से और उसे अस्वीकार कर दें पर मानव होने के नाते उसे जो प्रतिष्ठा और हर कोई हाथी का अपने सीमित अनुभव द्वारा, ज्ञान प्राप्त कर पाता है। सम्मान मिलना चाहिए-उससे उसे वंचित न करें। न्यायप्रियता का अर्थ हर कोई हाथी के किसी एक हिस्से को छूता है ओर तदनुसार उसका है हम अपने प्रति ईमानदार हों और जो भी कहें/ करें उसे अनावश्यक वर्णन करता है जो उसका कान पकड़ लेता है वह हाथी को 'सूप' की रूप से गुप्त न रखें । हमारा व्यवहार पादरी हो । उसमें हम केवल तरह बताता है । जो उसके पैर पकड़ता है, वह उसे खम्भे की तरह एक ही पक्ष के हित पर विचार न करें। बताता है, इत्यादि । सच यह है कि हाथी को अपनी सम्पूर्णता में किसी द्वन्द्व के निराकरण हेतु यह भी आवश्यक है कि किसी भी ने भी नहीं देखा है । हरेक ने केवल उसके किसी एक ही अङ्ग का स्पर्श हालत में हम दूसरे पक्ष से अपना सम्पर्क पूरी तरह तोड़ न लें। किया है । इसलिए वस्त: कोई नहीं कह सकता कि सम्पूर्ण हाथी कैसा परिस्थिति को इस प्रकार ढालें कि एक सकारात्मक सम्बन्ध बना रह है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है 'हो सकता है हाथी सूप सके और दूसरा पक्ष हमारी बात सुनने/समझने के लिए तत्पर रहे। की तरह हो ' अथवा हो सकता है वह खम्भे की तरह हो। द्वन्द्व और तनाव से परिपूर्ण परिस्थितियों के दबाव में हम हो सकता है', 'कदाचित्', 'स्यात्' ये वे शब्द हैं जो बार- अक्सर एक प्रकार के मानसिक प्रमाद से ग्रस्त हो जाते हैं और उन बार हमें याद दिलाते हैं कि हम यथार्थ को केवल आंशिक रूप से ही संसाधनों के प्रति जिनका हम द्वन्द्व निराकरण के लिए उपयोग कर सकते जान पाते हैं । स्याद्वाद इस प्रकार हमें अपने निर्णयों में अत्यन्त सावधानी हैं प्राय: उदासीन हो जाते हैं । अत: यह आवश्यक है कि हम निराकरण के लिए आमन्त्रित करता है । वह वास्तविकता को परिभाषित करते के प्रति अपनी पूरी जागरूकता बनाए रखें और अपनी सभी योग्यताओं समय हमें सभी प्रकार के मताग्रहों से बचने के लिए सावधान करता है और क्षमताओं का इस दिशा में पूरा-पूरा उपयोग कर सकें । यही साधनजिनदर्शन में स्याद्वाद के साथ दार्शनिक सूक्ष्मता और सुकुमारता मानों सम्पन्नता है। अपने चरम पर पहुँच जाती है। और अन्त में रचनात्मक वृत्ति । जब तक हम रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व की स्थिति में प्रत्येक पक्ष एकान्तिक दृष्टिकोण अपनाता को नहीं अपनाते द्वन्द्व निराकरण असम्भव है । किसी भी पक्ष के लिए है और यही उसके निराकरण में सबसे बड़ी कठिनाई है । जब तक हम यह आवश्यक है कि वह इस बात के प्रति आश्वस्त हो कि द्वन्द्व का एकांतिक दृष्टि को अपनाये रहेंगे और दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को निराकरण, यदि उचित प्रबन्ध किया जाय तो अवश्य हो ही जाएगा। अनदेखा करते रहेंगे, हम द्वन्द्व को समाप्त करने की बात सोच ही नहीं वह रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व से निपटने के लिए बहुत सहायक होती है । सकते । इसलिए जैनदर्शन हमें सर्वप्रथम उस वैचारिक-मानसिक गठन यदि हम ध्यान से देखें तो उपर्युक्त एक व्यापक मनोगठनको विकसित करने के लिए आमन्त्रित करता है जो अनेकान्त ओर एक दूसरे के प्रति सम्मान और सौहार्दपर्ण सम्पर्क तथा जागरूकता और स्याद्वाद की धारणाओं के अनुरूप हो। रचनात्मक वृत्ति ठीक उसी प्रकार की दार्शनिक-मानसिक बनावट है जिसे हम जैनदर्शन के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में पाते हैं । द्वन्द्व की द्वन्द्व निराकरण की प्रविधियाँ स्थिति में हम दूसरे पक्ष को समादर नहीं दे पाते इसका मूल कारण ही आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में द्वन्द्व निराकरण के यह है कि हम एकांतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं । यदि हा रा दृष्टिकोण अनेक उपाय बताए गए हैं। किन्तु ये सारे उपाय तभी सफल हो सकते यह हो कि दूसरा पक्ष भी अपने पक्ष की ही तरह सही या गलत हो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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