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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
सकता है तो दूसरे पक्ष के प्रति असम्मान के लिए कोई स्थान ही नहीं का विकास करेंगे तो क्रमश: क्रोध, मान, माया और लोभ पर स्वत: रहेगा । इसी प्रकार सौहार्दपूर्ण सम्पर्क भी तभी बना रह सकता है जब · विजय प्राप्त कर सकते हैं । इसके ठीक विपरीत योगदर्शन चारित्रिक हम केवल अपने दृष्टिकोण को ही अन्तिम न मानकर, दूसरे पक्ष को गुणों के विकास के लिए उनकी प्रतिपक्ष भावनाओं पर ध्यान देने के समझने के लिए तत्पर हों। दूसरे के लिए भी अन्तत: अनेकान्तवादी लिए कहता जो मनुष्य के लिए दु:ख का कारण बनती है। यदि हम मनोगठन की ही आवश्यकता है । अनेकान्तिक मनोगठन अपने आप उन प्रतिपक्षी भावनाओं पर दु:ख के कारकों के रूप में ध्यान दें तो हम में ही जागरूकता और रचनात्मक वृत्ति उत्पन्न करता है । जैनदर्शन में स्वत: चारित्रिक गुणों का विकास कर सकते हैं । इस प्रकार हम पाते जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, जाग्रति पर बहुत बल दिया हैं कि चारित्रिक गुणों के विकास के लिए दोनों दर्शनों में भिन्न वृत्तियाँ गया है। कहा गया है, अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा जागते हैं ।१३ अपनाई गई है। जैनदर्शन जबकि एक स्वीकारात्मक दृष्टिकोण को
अपनाकर सर्जनात्मक भावनाओं के विकास पर बल देता है ताकि भाव-शुद्धि
कषायों का हनन किया जा सके । योगदर्शन प्रतिपक्षी भावनाओं पर ध्यान द्वन्द-निवारण के लिए एक व्यापक रूप से अनेकान्त दृष्टि तो देने के लिए प्रेरित करता है ताकि उनके द:खद परिणामों को जानकर आवश्यक है ही साथ ही कुछ मूर्त उपाय भी हैं जो द्वन्द्व समाधान की हम उनसे बाज आ सके और सद्गुणों का विकास कर सके। ओर निस्सन्देह सङ्केत करते हैं इनमें से एक है-भाव-शुद्धि ।
जो भी हो, भाव-शुद्धि आवश्यक है क्योंकि मान, माया, लोभ द्वन्द्व के स्वरूप को बताते हुए हमने यह रेखांकित किया था और क्रोध की उद्दाम भावनाएं द्वन्द्व की स्थिति को न केवल प्रश्रय देती कि द्वन्द्व सदैव किसी न किसी उग्र-संवेग से आवेष्टित होता है और यह हैं बल्कि बद से बदतर भी बनाती हैं । स्वयं को इन कषायों से मुक्त करने संवेग या भाव सदैव ही विकार युक्त होते हैं । जैनदर्शन में ऐसे चार के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने में इनके विपरीत मधुर भावों विकार जिंन्हे कषाय कहा गया है, बताए गए हैं -ये हैं - क्रोध, मान, को-मार्दव, आर्जव, सन्तोष और क्षमा को विकसित करें । मार्दव का माया, और लोभ । यदि हम 'शीतोष्णीय द्वन्द्व'१४ से निजात पाना चाहते अर्थ है, कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का व्यक्ति तनिक हैं तो सबसे पहले हमें इन कषायों पर विजय प्राप्त करनी होगी। इन पर भी गर्व न करे । अपने अभिमान में मनुष्य दूसरों को अपमानित करता विजय प्राप्त करने का आखिर तरीका क्या है ? ।
है और द्वन्द्व-स्थिति में दुसरे पक्ष को अपमानित करना बड़ा आसान होता . आगम कहता है कि मद, मान, माया और लाभ से रहित भाव है। इससे बचने के लिए मार्दव का विकास होना चाहिए । आर्जव ही भाव-शुद्धि है। अत: यदि हम द्वन्द्व से विरत होना चाहते हैं तो इन कुटिल विचार, कुटिल वचन से अपने को बचाए रखना है १९१ सन्तोष कषायों से हमे अपने आप को मुक्त करना होगा।
लोभ को समाप्त करता है । जब सन्तोष होगा तो लोभ के लिए कोई __इसका उपाय यह है कि कषायों पर ध्यान न देकर उन मधुर- स्थान रहेगा ही नहीं । क्षमा वस्तुत: मैत्री भाव का विकास है । यदि भावनाओं पर हम अपना ध्यान केन्द्रित करें, कषाय जिनके प्रतिपक्षी आपमें मैत्री भाव नहीं है तो आप क्षमा भी नहीं कर सकते । भले ही दूसरे हैं। वे मधुर-भावनाएँ क्या हैं ? कहा गया है कि क्रोध प्रीति को नष्ट का व्यवहार आपके दृष्टिकोण से कितना ही गलत क्यों न हो, किन्तु करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है यदि आप उससे मैत्री बनाए रखते हैं और उसे क्षमा दे सकते हैं तो देर
और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है । अत: कहा जा सकता है कि सबेर वह आपकी दृष्टि का भी सम्मान किए बगैर नहीं रह सकता । अत: कषाय उन सारे भावों-प्रीति, विनय, मैत्री आदि का-जो द्वन्द्व निराकरण द्वन्द्व-निवारण की दशा में यह आवश्यक है कि हम अपने कषायों की में सहयोगी हो सकते हैं- नष्ट कर देते हैं । कषायों पर विजय प्राप्त भाव-शुद्धि करें और उन मधुर भावों का विकास करें, कषाय जिनके करना इसीलिए बहुत आवश्यक है । इन पर विजय किस प्रकार प्राप्त प्रतिपक्षी हैं। की जाए । आगम कहता है कि हम क्रोध का हनन क्षमा से करें, मार्दव सामायिक से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को द्वन्द निवारण के उपायों में, जिसे जैन दर्शन में 'सामायिक' जीतें ।१७ तात्पर्य यह है कि यदि हम कषायों पर विजय प्राप्त करना कहा गया है, एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रविधि है । जहाँ द्वन्द्व है वहाँ विरोध चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम उन भावनाओं को, जागरूक है। द्वन्द्व से यदि विरोध की भावना को निरस्त कर दिया जाए तो द्वन्द्व, होकर, अपने में विकसित करें जो कषायों का हनन करती हैं। द्वन्द्व नहीं रहता। इसके लिए आवश्यक है कि हम समत्व की भावना
इस प्रसंग में यहाँ जैनदर्शन की तुलना यदि योगदर्शन से की का विकास करें । जाए तो वह दिलचस्प हो सकती है। जैनदर्शन के अनुसार कषायों पर-
जैनदर्शन में 'समत्व' को एक मल्य के रूप में स्वीकार किया अर्थात् नकारात्मक आवेगों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें सृजनात्मक गया है 'श्रमण' वही है जिसमें समत्व की भावना हो- “समयाए समणो भावनाओं पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए। इस होई२०" । समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और प्रकार यदि हम क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष जैसे चारित्रिक गुणों स्वभाव आराधना-ये सभी एकार्थक शब्द हैं.१ । आत्मा को आत्मा के
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