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________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण रूप में जानते हुए जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वही श्रमण पूज्य माना गया है। वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है२३ । समत्व-प्राप्ति के लिए ध्यान रूप होना आवश्यक है । सामायिक में समत्व की उपलब्धि के लिए ध्यान पर बल दिया गया है। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि चित्त को एकाग्र करके उसे विचलित न होने देना ही ध्यान है २४ । लेकिन चित्त को शुभ और अशुभ दोनों पर ही केन्द्रित किया जा सकता है। प्रशस्त ध्यान, वह ध्यान है जो समत्व के शुभ-परिणाम हेतु होता है । प्रशस्त ध्यान की साधना समत्व-लाभ के लिए ही होती है। क्या समत्व साधना (सामायिक) एक आध्यात्मिक साधना मात्र है ? अथवा इसका कोई व्यवहार पक्ष भी है ? डॉ० सागरमल जैन कहते हैं कि समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है । यह जीवन के विविध पक्षों में एक ऐसा सांग सन्तुलन है जिसमें न केवल चैतसिक एवं वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी साधना में प्रयत्नशील हों ।२५ ५. आयारो, लाडनूं, सं २०३१, पृ० ८०-८१,गाथा, ४९-५१। ६. वही, पृष्ठ१२२, गाथा ९ । ७. वही, पृष्ठ १२४, गाथा ८ । ८. देखें समणसुत्तं, गाथा - १३५-१३६ । ९. वही, गाथा, १२३-१२७ । १०.जे अत्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अत्झत्थं जाणइ । आचारांग, गाथा, ३४७ ११. देखें - कैट्स और लॉयर : कंफ्लिक्ट रेसोलुशन, सेज, कैलिफोर्निया, १९९३, पृ० १०। १२. वही, पृ० २९ । १३. आयारो (पूर्वोक्त), पृ० १२२, गाथा, १।। १४. यहाँ ध्यात्व्य है कि आयारो (पूर्वोक्त) के तीसरे अध्ययन का शीर्षक 'शोतोष्णीय' है जो स्पष्ट ही सभी प्रकार के द्वन्द्व की ओर सङ्केत करता है। १५. नियमसार,१२२। १६. समणसुत्तं गाथा, १३५ । १७. दशवैकालिक, ८/३८ । १८. समणसुत्तं गाथा, ८८ । १९. वही, गाथा, ९१ । २०. वही, गाथा, ३४२। २१. वही, गाथा, २७५ । २२. वही, गाथा, ३४२। २३. वही, गाथा, ३४७ । २४. तत्त्वानुशासन, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट दिल्ली, श्लोक ५६। २५. देखें, डॉ० सागरमल जैन-जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, जयपुर, १९८२, पृ० १६-१७ । सन्दर्भ १. अंग्रेजी-हिन्दी कोश एस० चन्द्र एण्ड कं० नई दिल्ली - द्वारा प्रकाशित, १९९३, देखें शब्द कंफ्लिक्ट, पृ०१२८ । २. प्राकृत-हिन्दी कोश अहमदाबाद/ वाराणसी से प्रकाशित, १९८७, देखें, शब्द 'दंद' पृ० ४४८ । ३. हिन्दी विश्व कोश,खण्ड ६, 'द्वन्द्व-युद्ध पृ० १४३ १४४। ४. लाभलाभे, सुहे दुक्खे जीविए मरणो तहा। समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ ।। -समणसुत्तं, गाथा,३४७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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