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________________ १५०. वही, ३६६ १५१. सम्बोधप्रकरण, जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद, १९१६ आगरा-२२९/२६ १४८. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५,३६३ १४९. वही, ३८८ ४/५, प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम डॉ० अशोक कुमार सिंह भारतीय चिन्तन में कर्मसिद्धान्त का अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि जगत्-वैचित्र्य की व्याख्या के रूप में व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत की सभी दार्शनिक परम्पराओं में को ही कारण माना है फिर भी उनकी दृष्टि में कर्म चित्त-सन्तति का ही कर्मसिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध होता है । जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त परिणाम रहा। अत: उन्होंने कर्म को चैतसिक ही माना जबकि निर्ग्रन्थ का जो सुव्यवस्थित एवं सुविकसित रुप प्राप्त होता है वह अन्यत्र दुर्लभ परम्परा ने कर्म के चैतसिक और भौतिक दोनों ही पक्षों को स्वीकार कर है । श्रमण परम्परा के विश्रुत विद्वान् पद्मभूषण पं. दलसुख भाई एक सुव्यवस्थित कर्मसिद्धान्त की विवेचना प्रस्तुत की। मालवणिया का यह कथन अत्यन्त प्रासंगिक है - 'कर्मवाद की जैसी प्रस्तुत निबन्ध में हमारा विवेच्य जैन कर्म सिद्धान्त की विस्तृत व्यवस्था जैनों में दृष्टिगोचर होती है वैसी विस्तृत व्यवस्था व्याख्या न होकर मात्र इतना ही है कि जैन परम्परा में यह सिद्धान्त अन्यत्र दुर्लभ है । कर्मसिद्धान्त का विकास वस्तुत: विश्व-वैचित्र्य के क्रमिक रूप में किस प्रकार विकसित हुआ। डॉ० रवीन्द्रनाथ मिश्र ने कारणों की खोज में ही हुआ है । विश्व-वैचित्र्य के कारणों की विवेचना अपनी पुस्तक 'जैन कर्मसिद्धान्त उद्भव एवं विकास' में काल-क्रम की के रूप में श्वेताश्वतर उपनिषद् में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, दृष्टि से जैन कर्मसिद्धान्त के विकास-क्रम को तीन वर्गों में विभाजित कर पुरुषार्थ आदि का उल्लेख हुआ है। किन्तु विचारकों को विश्व-वैचित्र्य प्रत्येक वर्ग की मुख्य विशेषताओं को रेखांकित किया है। उनके अनुसार की व्याख्या करने वाले ये सभी सिद्धान्त सन्तोष प्रदान नहीं कर सके। ये तीन क्रम निम्नवत् हैं - प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों (सूत्रकृतांग) भी विश्व-वैचित्र्य के कारणता सम्बन्धी १.जैन कर्म सिद्धान्त का प्रारम्भिक काल या उद्भव काल ई. इन विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षा की गई और इन सिद्धान्तों की निहित पू. छठी से ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी। अक्षमता को ध्यान में रखते हुए श्रमण परम्परा में कर्मसिद्धान्त का २.जैन कर्म सिद्धान्त का व्यवस्थापन काल - ई.पू. दूसरी से आविर्भाव हुआ । इस सिद्धान्त में सर्वप्रथम यह माना गया कि वैयक्तिक ईसा की तीसरी शताब्दी । विभिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूति और सदसद् प्रवृत्तियों ३.जैन कर्म सिद्धान्त का विकास काल- ई.की चौथी शती । में उसकी स्वाभाविक रुचि के कारण व्यक्ति के अपने ही पूर्वकर्म होते से बारहवीं शती । हैं। यह मान्यता निर्ग्रन्थ, बौद्ध और आजीवका परम्परा में समान रूप से स्वीकृत रही। न्याय-वैशेषिक जैसे प्राचीन दर्शनों ने ईश्वर-कर्तृत्व की १. जैनकर्म सिद्धान्त का प्रारम्भि काल या उद्भवकाल अवधारणा को स्वीकार करते हुए भी वैयक्तिक विभिन्नता के कारण की डॉ. मिश्र के अनुसार प्रारम्भिक काल या उद्भव काल तक व्याख्या के रूप में ईश्वर के स्थान पर अदृष्ट या कर्म को ही प्रधानता निम्न अवधारणाएं बन चुकी थीं - १.कर्मों का शुभाशुभ फल मिलता दी है । फिर भी यह सुनिश्चित है कि श्रमण परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त है। २.कर्म संचित होते हैं, दूसरे शब्दों में वे कालान्तर में फल देने को जो प्रधानता मिली वह ईश्वरवादी परम्पराओं में सम्भव नहीं थी की सामर्थ्य रखते हैं। कर्म या कर्म बन्ध का कारण राग-द्वेष, कषाय क्योंकि वे कर्म के ऊपर ईश्वर की सत्ता को स्थापित कर रही थीं। और मोह है। ३. संचित कर्मों के कारण पुनर्जन्म होता हैं । ४. इन प्राचीन भारत की श्रमण परम्पराओं में आजीवक परम्परा संचित कर्मों से अर्थात् संसार-परिभ्रमण से मुक्ति हो सकती है। विलुप्त हो चुकी है और उसका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है । अतः तात्पर्य यह कि प्रारम्भिक काल में यद्यपि कर्म सिद्धान्त की उसमें कर्मसिद्धान्त किस रूप में था यह कह पाना कठिन है । बौद्धों ने सभी मूलभूत बातें अस्तित्व में आ चुकी थीं फिर भी इन प्राचीनतम ग्रन्थों Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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