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तपागच्छ का इतिहास
२०५ ४. धर्मरत्नप्रकरण बृहद्वृत्ति
कर दिया। इनके द्वारा रचित कृतियों में यतिजीतकल्पसूत्र, २८ ५. सुदर्शनाचरित्र
यमकस्तुतिओ, श्रीमच्छर्मस्तोत्र आदि उल्लेखनीय है १२। इनके शिष्यों ६. चैत्यवन्दन आदि ३ भाष्य
के रूप में विमलप्रभ, परमानंद, पद्मतिलक और सोमतिलक का नाम ७. वन्दारुवृत्ति अपरनाम श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति मिलता है। वि०सं० १३७३/ई०स० १३१७ में इनके निधन के पश्चात्
८. दानादि ४ कुलक, जिसपर वि० सं० की १७ वीं शती सोमतिलकसूरि ने तपागच्छ का नायकत्व ग्रहण किया। में विजयदानसूरि के प्रशिष्य एवं राजविजयसूरि के शिष्य देवविजय ने सोमतिलकसूरि का जन्म वि०सं० १३३५ वि०सं० में धर्मरत्नमंजूषा के नाम से वृत्ति की रचना की। इसके अलावा उनके द्वारा हुआ था, वि०सं० १३६९ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० रचित कुछ स्तुति-स्तोत्र भी मिलते हैं।
१४२४ में इनका देहान्त हुआ। इनके द्वारा रचित कृतियाँ इस प्रकार देवेन्द्रसूरि के पट्टधर धर्मघोषसूरि द्वारा रचित कृतियां इस हैं:१३ प्रकार हैं :१०
१. बृहन्नव्यक्षेत्रसमास १. संघाचारभाष्य
२. सप्ततिशतस्थानप्रकरण (रचनाकाल वि० सं० १३८७/ २. कायस्थितिस्तवन
ई०स० १३२१) भवस्थितिस्तव
सज्झकचतुर्विंशतिजिनस्तुतिवृत्ति ४. स्तुतिचतुर्विंशति
४. चतुर्विंशतिजिनस्तवनवृत्ति ५. देहस्थितिप्रकरण
तीर्थराजस्तुति चतुर्विंशतिजिनस्तवसंग्रह
विचारसूत्र ७. दुषमाकालसंघस्तवन
अठ्ठाइसयमकस्तुतिओ पर वृत्ति ८. युगप्रधानस्तोत्र
वीरस्तव ९. ऋषिमंडलस्तोत्र
९. कमलबन्धस्तवन १०. परिग्रहप्रमाणस्तवन
१०. साधारणजिनस्तुति ११. चतुर्विंशतिजिनस्तुति
१३. शत्रुजययात्रावर्णन १२. अष्टापदकल्प
इनके शिष्यों में पद्यतिलक, चन्द्रशेखर, जयानन्द, देवसुन्दर १३. गिरनारकल्प
आदि का नाम मिलता है। पद्यतिलक द्वारा रचित कोई कति नहीं मिलती, १४. श्राद्धजीतकल्प
किन्तु चन्द्रशेखर और जयानन्द द्वारा रचित कृतियाँ प्राप्त होती हैं। मुनि चतुरविजयजी ने इनके अनेक स्तवनों को जैनस्तोत्रसंदोह, चन्द्रशेखर द्वारा रचित कृतियों में उषितभोजनकथा, प्रथमभाग में प्रकाशित किया है११॥
यवराजर्षिकथा, श्रीमद्स्तम्भनकहारबंधस्तवन आदि का नाम धर्मघोषसूरि के पट्टधर सोमप्रभसूरि हुए। इनका जन्म वि०सं० मिलता है१४ १३१० में हुआ था। वि०सं० १३२१ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। जयानन्दसूरि द्वारा रचित कृतियों में स्थूलिभद्रचरित्र'५, वि०सं०१३३२ में सूरि पद प्राप्त हुआ और जैसा कि ऊपर कहा जा देवप्रभस्तत्र ६, साधारणजिनस्तोत्र आदि उल्लेखनीय हैं। जयानन्दसूरि चुका है वि० सं०१३५७ में गुरु के निधन के पश्वात् उनके पट्टधर बने। को वि० सं० १४२० में आचार्य पद प्राप्त हुआ और वि०सं० १४४१ इन्होंने कोंकण आदि प्रदेशों में जल का अधिकता और मारवाड़ आदि में इनका देहान्त हुआ। में जल की दुर्लभता के कारण तपागच्छीय मुनिजनों का विहार निषिद्ध
८.
वा
सोमतिलकसूरि के वि० सं०१४२०/ई०स० १३६४ में निधन के पश्चात् देवसुन्दरसूरि उनके पट्टधर बने १८१ वि० सं०१३९६ में इनका जन्म हुआ था, वि० सं० १४०४ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि० सं० १४२० में सूरि पद प्राप्त किया१९। इनके उपदेश से बड़ी संख्या में प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करायी गयीं, जिनमें से अनेक आज भी उपलब्ध हैं २०। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जो वि० सं० १४४७ से १४६८ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है: क्रमांक वि० सं० तिथि
प्राप्तिस्थान
संदर्भग्रन्थ १. १४४७ फाल्गुन सुदि ८
दादा पार्श्वनाथदेरासर, मुनि बुद्धिसाग़र, संपा०, सोमवार
नरसिंहजी की पोल, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, बड़ोदरा
लेखांक १४६
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