________________
कालिदास की काव्यत्रयी पर जैन टीकाएँ
१२७ ९. मुनि श्री जिनभद्रसूरि द्वारा कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर लिखी की ग्रन्थ संख्या ४१६ पर एवं ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन की ईसवी सन् गई एक टीका का उल्लेख प्राप्त होता है २५ । टी. ऑफेक्ट द्वारा संकलित १९०२ में प्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची की ग्रन्थ संख्या २२५ केटालॉगस केटालॉगरम के भाग प्रथम के पृष्ठ ११० पर इस टीका की पर प्राप्त होता है। जानकारी मिलती है।
७. आचार्य श्री धर्मसुन्दरगणि के शिष्य मुनि जिनहंस ने भी १०. डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित एवं भण्डारकर इंसटीट्यूट मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है। रामबहादुर हीरालाल द्वारा पूना के दूसरे हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रह की ग्रन्थ-संख्या ७५-७६ पर किसी संकलित एवं नागपुर ईसवी सन् १९२६ में प्रकाशित संस्कृत एवं प्राकृत अज्ञातनाम जैन विद्वान् टीकाकार द्वारा कुमारसम्भवम् पर लिखी गई अवचूरि ग्रन्थों की हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची की ग्रन्थ-संख्या ६८२ पर इस टीका का का उल्लेख मिलता है २६ ।
उल्लेख प्राप्त होता है। ११. कुमारसेन नामक एक जैन विद्वान् टीकाकार ने कुमारसम्भवम् ८. खरतरगच्छ के मुनि श्री महिम सिंह ने भी विक्रम संवत् महाकाव्य के एक से तीन सर्गों तक की टीका लिखी है । इस टीका का १६९३ में मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है३४ । भण्डारकर उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट फूमा द्वारा ईसवी सन् १९२५ में प्रकाशित इंस्टीट्यूट पूना की हस्तलिखित चौथी ग्रन्थ-सूची की ग्रन्थ संख्या २८० पर हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के पृष्ठ १६ पर मिलता है ।
इस टीका का उल्लेख मिलता है । अन्य ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थ-सूचियों
में भी इस टीका का उल्लेख है। मेघदूतम् :
९. खरतरगच्छ के मुनि श्री समय सुन्दर ने मेघदूतम् खण्डकाव्य यह खण्डकाव्य महाकवि कालिदास की रसोद्गारि-गिरा का सर्वोत्कृष्ट के प्रथम श्लोक ‘कश्चित्कान्ताविरहतगुरुणा' के तीन अर्थ प्रस्ततु किये हैं। प्रसाद है । इस खण्डकाव्य में स्थापित मानव और प्रकृति का अद्वैत समूचे इसका उल्लेख समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि में प्राप्त होता है। संस्कृत साहित्य में अनूठा है । इस अमर खण्डकाव्य पर विभिन्न विद्वान् १०. मुनि श्री मेघराजगणि ने भी मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीकाकारों द्वारा अब तक पचासों टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं।८ । इस टीका लिखी है३६ । इस टीका का उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना द्वारा खण्डकाव्य पर जैन टीकाकारों द्वारा लिखी गई निम्नलिखित टीकाओं की ईसवी सन् १८९५ के पूर्व प्राप्त हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रकाशित ग्रन्थजानकारी प्राप्त होती है
सूची के पृष्ठ ५० पर प्राप्त होता है। १. मेघदूतम् खण्डकाव्य पर जैन टीकाकारों द्वारा लिखी गई ज्ञात ११. मुनि श्री विजयसूरि ने भी मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीकाओं में जैन विद्वान् आसके द्वारा लिखी गई टीका सर्वप्रमुख है। यह टीका लिखी है। यह टीका विक्रम संवत् १७०९ में रची गई है, ऐसा टीका बालचन्द्र द्वारा विवेकमंजरी में प्रकाशित भी है । इस टीका की उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना के हस्तलिखित ग्रन्थों के पाँचवे संग्रह की हस्तलिखित प्रति का उल्लेख डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित भण्डारकर ग्रन्थ संख्या ४४३ पर उल्लिखित मिलती है । इंस्टीट्यूट पूना के तीसरे हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रह की पृष्ठ संख्या१०२ पर १२. श्री आर. मित्रा द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हस्तलिखित मिलता है।
ग्रन्थों की नौवीं ग्रन्थ-सूची के पृष्ठ १६३ पर एक अज्ञातनाम जैन टीकाकार २. श्री विजयगणि ने मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी द्वारा मेघदूतम् खण्डकाव्य पर “मेघलता' नामक एक टीका लिखे जाने का है । इस टीका का उल्लेख डेला उपश्रय भण्डार अहमदाबाद के उल्लेख मिलता है । यह टीकाकार एक जैन विद्वान् ही है, इसकी पुष्टि हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के पृष्ठ ३८ पर तथा विमलगच्छ उपाश्रय टीका के प्रारम्भिक चरण 'प्रणम्य श्रीजिनेशनम्' से स्वयंसिद्ध होती है। भण्डार अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के अनुसार चौदहवें १३. मुनि श्री महीमेरु गणि नामक एक जैन टीकाकार ने बन्डल के उन्नीसवें ग्रन्थ में प्राप्त होता है।
मेघदूतम् खण्डकाव्य पर “बालावबोधवृत्ति'' नामक टीका लिखी है । इस ३. आचार्य श्री विनयमेरु के सुशिष्य सुमतिविजय ने भी टीका की मूल हस्तलिखित प्रति पाटण के ग्रन्थ-भण्डार की ग्रन्थ-सूची में मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख जैन ग्रन्थ-संख्या ४ पर संग्रहीत एवं उपलब्ध है। ग्रन्थावली में मिलता है।
इस प्रकार महाकवि कालिदास की काव्यत्रयी के इन तीनों ही ४. खरतरगच्छ के मुनि श्री चरित्रवर्धन गणि ने भी मेघदूतम् , काव्यों पर जैन टीकाकारों द्वारा अबतक उपलब्ध शोधपरक जानकारी खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख भण्डारकर अनुसार रघुवंशम् महाकाव्य पर दस टीकाएँ, कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर इंस्टीट्यूट पूना की डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची के ग्यारह टीकाएँ रची जा चुकी मिलती हैं। परन्तु यह निश्चित तौर पर अब चौथे संग्रह की ग्रन्थ संख्या ३४५ पर प्राप्त होता है।
भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अभी भी ऐसे बहुत से प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार ५. खरतरगच्छ के ही आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि के सुशिष्य मुनि अंधकार में पड़े हो सकते हैं, जिनमें ऐसी ही अन्य अनेक टीकाओं की क्षेमहंसगणि द्वारा मेघदूतम् खण्डकाव्य पर लिखी गई एक टीका का उल्लेख सम्भावना की जा सकती है । इस दिशा में अभी पर्याप्त शोध की अपेक्षा जैन ग्रन्थावली में प्राप्त होता है।
और गुंजाइश है । इस शोधपरक अध्ययन में मुनि श्री चारित्रवर्धनगणि एक ६. खरतरगच्छ के ही आचार्य श्री जयमन्दिर के सुशिष्य मुनि ऐसे टीकाकार उभर कर सामने आते हैं, जिन्होंने महाकवि कालिदास की कनककीर्ति ने भी मेधदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है३२ । इस काव्यत्रयी के तीनों काव्यों पर प्रभावशाली टीकाएँ लिखी हैं । मुनि श्री चारित्र टीका का उल्लेख टी० ऑफेक्ट द्वारा संकलित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची वर्धनगणि की खण्डान्वय शैली की ये टीकाएँ अपने ढंग में अनूठी है ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org