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________________ ८ और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और उनको विजित करनेवाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरूषों द्वारा मुक्त कहा जाता है १३ । वस्तुतः आत्मा की वासनाओं से युक्त अवस्था ही बन्धन है और वासनाओं तथा विकल्पों से रहित शुद्ध आत्मदशा ही मोक्ष है जैन अध्यात्मवाद का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर है । धर्म साधना के द्वारा जो कुछ पाया जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। हमारी मूलभूत क्षमतायें साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में समान ही है। साधक और सिद्ध अवस्थाओं में अन्तर क्षमताओं का नहीं वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है। जिस प्रकार बीज वृक्ष के रूप में विकसित होने की क्षमता रखता है और वह वृक्ष रूप में विकसित होकर वह अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है वैसे ही आत्मा भी परमात्मदशा प्राप्त करने की क्षमता रखता है और उसे उपलब्ध कर पूर्ण हो जाता है। जैन धर्म के अनुसार अपनी ही बीजरूप क्षमताओं को पूर्ण रूप से प्रकट करना ही मुक्ति है। जैसे साधना 'स्व' के द्वारा 'स्व' को उपलब्ध करना है, निज में प्रसुप्त जिनत्व को अभिव्यक्त करना है। आत्मा को ही परमात्मा के रूप में पूर्ण बनाना है। इस प्रकार आत्मा का साध्य आत्मा ही है। जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ मान्य किया है। जैनधर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं है। हमारी ही चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प के पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधना मार्ग बन जाते हैं। जैन दर्शन में सम्यक्ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक् चारित्र को, जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के रूप में साधनामार्ग बन जाते हैं। · इस प्रकार साधनामार्ग भी आत्मा ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि मोक्षकामी को आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति ( अनुचरितव्यश्च ) करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) और योग सब अपने आपको पाने के साधन हैं। क्योंकि वही जैन दर्शन आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, त्याग में है, संवर में है और योग में है१४। जिन्हें व्यवहारनय से ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, वे निश्चयनय से तो आत्मा ही हैं। त्रिविध साधनामार्ग जैनदर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनामार्ग बताया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया है१५॥ उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है १६ किन्तु जैन आचायों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके इस त्रिविध साधना मार्ग को ही Jain Education International सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधनामार्ग का ही विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः त्रिविध साधनामार्ग के विधान में जैनाचार्यों की एक गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पहलू माने गए है- १. ज्ञान २. भाव और ३. संकल्प । चेतना के इन तीनों पक्षों के सम्यक् विकास के लिए ही त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए सम्यक् ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है। जैन-दर्शन के समान ही बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधनामार्ग का विधान है। बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधनामार्ग के तीन अंग है- १. शील, २. समाधि और ३. प्रज्ञा १७ हिन्दू धर्म के ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग भी त्रिविध साधना मार्ग का ही एक रूप हैं। गीता में प्रसांगान्तर से त्रिविध साधनामार्ग के रूप में प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है। इसमें प्रणिपात श्रद्धा का परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिध्यासन के रूप में भी विविध साधनामार्ग का प्रस्तुतीकरण हुआ है। यदि हम गहराई से देखें तो इनमें श्रवण श्रद्धा के मनन ज्ञान के और निदिध्यासन कर्म के अन्तर्भूत हो सकते हैं। . पाश्चात्य परम्परा में भी तीन आदेश उपलब्ध होते हैं - १. स्वयं को जानो (Know Thyself), २. स्वयं को स्वीकार करो (Accept चिन्तन के तीन आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हैं। Thyself) और ३. स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself) १९ पाश्चात्य आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म- रमण में चारित्र का तत्त्व उपस्थित है। प्रज्ञा सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन समाधि सम्यक् चरित्र शील बौद्ध दर्शन हिन्दू धर्म गीता उपनिषद परिप्रश्न मनन प्रणिपात श्रमण निदिध्यासन Be thvself ज्ञान भक्ति कर्म सेवा पाश्चात्यदर्शन Know Thyself Know Thys त्रिविध साधनामार्ग और मुक्ति कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शंकर मात्र ज्ञान से और रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते है। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसे किसी एकान्तवादिता में नहीं गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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