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________________ १८२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ हमारे ही राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति है, हमारे ही राष्ट्र की एक उत्तम चावडा के राज्याभिषेक के युग से लेकर कर्ण वाघेला के पतन के विभूति है, हमारे ही कलाकारों का एक सुन्दर कलाकर्म है, हमारी ही समय के दरमियान की प्रत्येक शताब्दी की जैन यतिओं द्वारा निवास-भूमि का एक मनोरम आभूषण है और हमारे ही पड़ोसी भाई निर्मित ऐसी अनेक अपभ्रंश कृतियाँ अणहिलपुर के भंडारों में से का एक पवित्र धाम है- इस दृष्टि से उस पर हमारा ममत्व क्यों नहीं हमें प्राप्त होती हैं। हो और उसे देख कर आह्लाद का अनुभव क्यों नहीं हो? जैन पण्डित हमेशा प्राचीन और वर्तमान दोनों भाषाओं के हम धन का संचय करने में किसी धर्म या संप्रदाय का उपासक रहे हैं। उन्होंने दोनों प्रकार के भाषा और साहित्य को अपनी विचार नहीं रखते। पैसा यदि मिलता हो तो एक जैन भी वैष्णव के कृतियों से अलंकृत किया है। प्राकृत और संस्कृत इन दोनों पुरातन साथ साझा कर लेगा और वैष्णव जैन के साथ। यदि वेतन अच्छा भाषाओं के साथ अपभ्रंश युग में उन्होंने अपभ्रंश भाषा को समृद्ध मिलता हो तो एक हिन्दू मुसलमान की नौकरी कर लेता है और बनाने के लिये उसमें भी उतनी ही साहित्य रचना की है और यग के मुसलमान ईसाई के यहाँ। इस प्रकार सांसारिक स्वार्थ सिद्ध करने में व्यतीत होने पर जब गुजराती भाषा के युग का प्रारम्भ हुआ तब किसी कौम और संप्रदाय के संस्कार बाधक नहीं होते, तो फिर धर्म उसमें भी उतनी ही तत्परता से रचना करने लग गये। जैसे पारमार्थिक विषय में वे संस्कार क्यों बाधक होते हैं? और क्यों आचार्य हेमचन्द्र के जीवन की समाप्ति के साथ ही अपभ्रंश हम पारस्परिक द्वेष और शत्रुता को पुष्ट करते हैं? ऐसे द्वेष और भाषा के जीवन की भी समाप्ति हुई और गुजराती भाषा के उदय शत्रुत्व से न तो हमारी भौतिक उन्नति हो सकती है और न आध्यात्मिक। काल का प्रारम्भ हुआ। उस उदय काल के आदि क्षण से लेकर आज उससे तो एकान्त अवनति और अशान्ति ही प्राप्त होती है। हमें यह तक जैन विद्वानों ने गुजराती भाषा की अविरत सेवा की है और बात सर्व प्रथम समझ लेनी चाहिए। जिसकी तुलना किसी भी देशी भाषा से न की जा सके उतनी अधिक अस्तु यह तो मैंने थोड़ा विषयान्तर किया अब मूल विषय कृतियों से उस भाषा के भण्डार को उन्होंने परिपूर्ण किया है। विद्या का विचार किया जाय। विलासी और संस्कृति-प्रतिमूर्ति महाराजाधिराज सयाजी राव के प्रशंसनीय आदेश से स्व० विद्वान् श्री चमल लाल दलाल ने पाटण के भण्डारों साहित्य रचना का विस्तृत पर्यवेक्षण किया था। जिसके फलस्वरूप गुजराती भाषा जिस प्रकार स्थापत्य कला का विकास करके जैनों ने के उस पुरातन अमूल्य जवाहिर को विश्व के समक्ष रखने का अपूर्व गुजरात को अपूर्व और आकर्षक शोभा अर्पित की है उसी प्रकार उद्योग किया था। उसके फलस्वरूप हममें उस जवाहिर के खजानों की साहित्य की विविध रचना द्वारा जैनों ने गुजरात को अनुपम ज्ञान- शोध की जिज्ञासा जागृत हुई। जैन विद्वान श्री मोहन लाल देसाई समृद्ध किया। गुजरात की साहित्य समृद्धि और बहुत विशाल है। अन्तिम करीब २० वर्ष से गुजराती भाषा में ग्रथित जैन साहित्य की अणहिलपुर के अभ्युदय काल के प्रारम्भ से आज तक जैनों ने शोध कर रहे हैं और उसके फलस्वरूप उन्होंने अब तक में हजारगुजरात में रह कर जिस साहित्य की रचना की है उसकी तुलना के हजार पृष्ठ के तीन ग्रन्थ तैयार किये हैं। उनको देखने से आप यह लिये दूसरा कोई देश नहीं है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीन कल्पना कर सकेंगे कि जैन विद्वानों ने गुजराती भाषा की कैसी उत्कृष्ट गुजराती और नवीन गुजराती ऐसी विविध भाषाओं के हजारों ग्रंथों से सेवा की है। गुजरात के ज्ञानभंडार परिपूर्ण हैं। प्राकृत भाषा जो हमारे देश की अणहिलपुर, भरुच, खम्भात, कपडवज,धोलका, धंधुका, समस्त आर्य भाषाओं की मातामही है उसका विपुल भण्डार एक मात्र कर्णावती, डभोई, बडोदरा, सूरत, पालनपुर, पाटडी, चन्द्रावती, गुजरात की संपत्ति है। वलभी युग के आरम्भ से मुगलाई के अन्त ईडर, वडनगर आदि गुजरात के प्रत्येक मध्यकालीन नगरों के तक गुजरात के जैन यति प्राकृत ग्रन्थों की रचना करते और इस उपाश्रयों में रहकर जैन यतिओं ने असंख्य संस्कृत ग्रन्थों की रचना प्रकार प्राकृत भाषा का अखण्ड परिचय गूर्जर प्रजा को वे देते रहे हैं। की है। उन ग्रन्थों में व्याकरण, काव्य, कोष, अलंकार, साहित्य, प्राकृत भाषा के उक्त परिचय सातत्य के कारण गुजराती भाषा के छद, नाटक, न्याय, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, आख विकास क्रम का इतिहास हमें अतीव सुलभ और सुस्पष्ट रूप से प्राप्त आदि ज्ञान-विज्ञान के समस्त विषयों का समावेश किया है। सैंकड़ों हो सकता है। ऐसे कथा ग्रन्थ हैं जिनमें गुजरात के सामाजिक लोक जीवन विषयक हिन्दी, मराठी, बंगाली और गुजराती भाषाओं की साक्षात् विविध सामग्री मिल सकती है। उस काल में प्रचलित सैकड़ो गुजराती जननी जो मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा मानी जाती है उसका भी लोक कथाओं को लौकिक संस्कृत भाषा में परिवर्तित करके उनके भी जितना विपुल और विशिष्ट साहित्य गुजरात के जैन भण्डारों में अनेक संग्रह उन्होंने ग्रथित किये हैं। गुजरात के मध्य कालीन प्राप्त होता है उतना अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। वनराज इतिहास की यथाश्रुत घटनाओं को ग्रन्थबद्ध करके गुजरात के इतिहास Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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