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किया
जैनधर्म और गुजरात
१८१ छोड़कर उस महायोगी महामन्दिर में दिन और रात 'शिव' 'शिव' नहीं करते। यही कारण है कि गुजरात में जैनेतर मन्दिरों की भव्यता ऐसी महाध्वनि करके समाधि की साधना में लीन होकर बैठे रहते आज दृष्टिगोचर नहीं होती। इस वस्तुस्थिति को मैं हमारी प्रजाकीय थे? कहाँ हैं वे अनेक महर्षि जो इस पशुपति के पुण्य सान्निध्य में धार्मिक भावना की बड़ी क्षति की सूचक समझता हूँ। परब्रह्म की प्राप्त्यर्थ कई वर्ष तक ब्रह्मचिन्तन और गायत्रीगान किया करते थे? कहाँ हैं वे अनेक योगी जो उस ज्योतीश्वर के गर्भागार के राष्ट्रीय ममत्व का अभाव सुवर्ण घटित घंटनादों से गञ्जायमान होने वाली गिरिमेखला की जैन हो, शैव हो, वैष्णव हो, बौद्ध हो या फिर ईसाई या एकान्त कंदराओं में कन्दमूल और फलफूल खाकर कठोर तपस्या मुस्लिम हो, किसी भी प्रजा के धार्मिक स्थानों की अधोगति उस प्रजा करते थे और योग की दिव्य विभूतियों को हस्तगत करते थे? उस के जीवन की ही अधोगति की सूचक है। हम यह अच्छी तरह जानते काल में लाखों नर-नारी भारत के कोने-कोने से नाना प्रकार के कष्टों हैं कि इंगलैण्ड, फ्रांस या जर्मनी जैसे युरोपीय जड़वादी देशों में को झेल कर उस धाम की यात्रा करने आते थे और उस महेश्वर के आज धार्मिक बाह्य आचरणों का कुछ भी महत्व नहीं है। धर्मगुरु या प्रसाद को शिर पर चढ़ाकर जीवन को कृतकृत्य समझते थे। मेरे धर्म ग्रंथों के ऊपर वहाँ आज तनिक भी श्रद्धा और भक्ति नहीं देखी अभिप्राय से अचलेश्वर अमुक अंश में समस्त गूर्जर संस्कृति और जाती। फिर वहाँ के धर्मस्थान-गिरजाघरों की पवित्रता और प्रतिष्ठा गूर्जर पौरुष का प्रेरक धाम है, गूर्जर लोगों का वह कैलास है और की उतनी ही सुरक्षा की जाती है। वहाँ के लोग गिरजाघरों को आज गूर्जर क्षात्रधर्म की वह यज्ञवेदी है।
मोक्ष का दैवी धाम नहीं मानते फिर भी अपनी जातीय संस्कृति और ऐसे इस पवित्र धाम की आज उपरिवर्णित दुःखदायक अस्मिता के प्रेरक स्थान के रूप में अत्यन्त आदर से उनको स्वीकार दुर्दशा है। सिरोही महाराज और बीकानेर महाराज, जयपुर दरबार करते हैं। राष्ट्रीय कला कौशल के अपूर्व स्मारक के रूप में वे उनकी
और उदयपुर दरबार और ऐसे कितने हैं फिर भी किसी राजा महत्ता का गान करते हैं और कितने ही धन और जन की बलि से भी महाराजा को यह सूझ नहीं कि जिस देव को उनके पूर्वजों ने अपने उनकी रक्षा करने के लिए वे लोग सदा तत्पर रहते हैं। भौतिक देह तक दे दिये थे उस देव के योग्य पूजा प्रक्षालन की और उसके विज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर स्थित जर्मन प्रजा आज भी जातीय मन्दिर की सफेदी की सो कुछ व्यवस्था करें! सिरोही महाराज ने संस्कृति और स्थापत्य के उत्तम निदर्शक ऐसे अनेक नये-नये गिरजाघरों किसी ट्रेवर नाम गौराङ्ग देव की स्मृति को अमरता प्रदान करने के का निर्माण करती है और उसमें करोड़ों रूपयों का खर्च राष्ट्रीय लिये करीब लाख रूपयों का खर्च करके आबू पर्वत के ऊपर 'ट्रेवर खजाने में से करती है। वहाँ की प्रजा यह मानती है कि गिरजाघर टालर' नामक बन्ध बांधा और उसमें सिर्फ गोरी चमड़ी वाले सैनिकों समस्त प्रजा की सर्व साधारण सम्पत्ति है। सम्पूर्ण राष्ट्र की संयुक्त को ही नंगे होकर नहाने की ओर उसकी मछलियों को पकड़ कर सम्पत्ति है। प्रत्येक प्रजा जन को वह स्वकीय वस्तु प्रतीत होता है खाने की पुण्यकारी व्यवस्था कर दी। किन्तु अचलेश्वर के सेवक कहे और इसी लिये प्रत्येक प्रजाजन उसके लिए ममत्व भाव रखता है। जाने वाले उस राज्य के आधुनिक किसी राजा ने वहाँ के पवित्र माने- दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसी प्रजाकीय भावना जागृत नहीं है। यही जाने वाले मंदाकिनी कुण्ड में लोगों को शौच जाने से रोकने की कोई कारण है कि हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का विकास कर नहीं सकते व्यवस्था नहीं की।
हैं। धर्म, जाति और संप्रदाय की संकीर्ण भावना ने हमारा राष्ट्रीय ऐसी दुर्दशा मैंने मेवाड़ के महाधाम एकलिङ्गेश्वर में भी गौरव कुंठित कर दिया है, गतप्राण बना दिया है। कुछ अंशों में देखी है और उज्जयिनी के महाकालेश्वर की भी देखी है, इनके मुकाबले में जैनों के शत्रुजय, गिरनार, तारंगा, केसरिया पारस्परिक विद्वेष जी आदि तीर्थों को देखें और उनकी व्यवस्था देखें। इन दोनों में
जैनों के भव्य मंदिरों को देख कर किसी वैष्णव को आनन्द जमीन आसमान का भेद है। वह ऐसा ही है जैसा बम्बई में नहीं होगा और किसी वैष्णव के सुन्दर धाम को देख कर जैन को बालकेश्वर में स्थित धनिकों के महालयों में और भूलेश्वर में आनन्द नहीं होगा। शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन सभी की यही दशा है। गुमास्ताओं के मालों में है।
इतना ही नही किन्तु जैनों में भी श्वेताम्बर मन्दिर के प्रति दिगम्बर का जैन और शैव मन्दिरों की व्यवस्था के विषय में यहाँ जो और दिगम्बर मन्दिर के प्रति श्वेताम्बर का द्वेषभाव है। हमारी यह कुछ कहा गया है उसका विपरीत अर्थ आप न लें कि ऐसा कह कर संकीर्ण भावना राष्ट्रीय ऐक्य और अस्मिता में बाधक है और इसी से मैं जैनों का बड़प्पन दिखाना चाहता हूँ और जैनेतरों की हीनता। मेरा हमारी उन्नति में भी विघात होता है। भले ही हमारी धार्मिक मान्यता अभिप्राय तो सिर्फ इतना ही है कि जैन जिस प्रकार अपने देवस्थानों में भेद हो और उससे हम अन्य धर्म के देवस्थानों को अपने की पवित्रता सुरक्षित रखने का यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं वैसा जैनेतर आध्यात्मिक कल्याण का साधन मान कर न पूजें फिर भी वह भी
हा
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