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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
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अहमदाबाद के एक धर्मप्रिय उदार सेठ साराभाई डाह्याभाई ने उक्त तीर्थ का पुनद्धार करने में अपनी अस्थिर लक्ष्मी का सदुपयोग करना शुरू किया और उसी के फलस्वरूप आज वहाँ अष्टमंगलोपेत महाध्वज और स्वर्णकुम्भों में समलंकृत शिखर वाला एक भव्य और सुन्दर जैन मन्दिर सुशोभित हो रहा है। प्रति वर्ष हजारों यात्री वहाँ दर्शन शैव मन्दिरों की दुर्दशा और जैन मन्दिरों की सुरक्षा करने आते हैं और सैकड़ों वर्षों तक नष्ट-भ्रष्ट होने वाले तीर्थ का पुनरुद्धार हुआ देख कर आनन्द और आह्लाद का अनुभव करते हैं। जैनों की ओर से इस प्रकार का तीर्थोद्धार का कार्य समस्त देश में सतत चालू है। जैनों की इस देवभक्ति और तीर्थरक्षा की भावना का शैवों और वैष्णओं को भी अनुकरण करना चाहिए और नष्ट-भ्रष्ट हुए तीर्थस्थानों का योग्य रूप में पुनरुद्धार करके देश की शिल्पकला और रूप शोभा में अभिवृद्धि करनी चाहिए।
वनराज के राज्याभिषेक के समय में स्थापित पाटण का पञ्चासर पार्श्वनाथ का जैन मन्दिर आज भी जब देश-देशान्तर के हजारों यात्रियों को आकृष्ट कर रहा है तब चौलुक्य चक्रवर्तियों द्वारा स्थापित समस्त गुजराती प्रजा के राष्ट्र- मन्दिर के योग्य ऐसे 'सोमेश्वर प्रासाद' और 'त्रिपुरुष प्रासाद' जैसे महान् शिवालयों के अस्तित्व की भी देशवासियों को कुछ खबर ही नहीं रही है। देश में रहने वाले लाखों शैवधर्मी- जिनमें अनेकानेक राजा, महाराजा, जागीरदार, सरदार, कोटयाधिपति आदि का समावेश होता है वे आज अपने राष्ट्र और धर्म के इष्टदेव की ऐसी उपेक्षा करें यह वस्तुतः शोचनीय है।
देवमन्दिर आज हमारे ऐसे समृद्ध और धर्मप्राण देश में भी अनेक प्रकार से महत्वहीन और अस्तव्यस्त दशा में पड़े हों ऐसा दीखता है।
मन्दिरों की प्रशस्ति
सुन्दर और भव्यदेव मन्दिर यह ग्राम और नगर के विभूतिमान् अलंकार हैं, पवित्रता के प्रेरक धाम हैं उत्सव और प्रीतिभोज के लिए आनन्द भवन हैं, अनजान अतिथि के लिए उन्मुक्त आश्रयस्थान हैं, शोक और संताप के निवारक रङ्गमण्डप हैं, गरीब और धनिक प्रजाजनों को एकासन पर बैठाने वाले व्यासपीठ हैं, भक्त और मुमुक्षु जीवों को आध्यात्मिक भावों में रमण करने के मुक्त क्रीड़ांगण हैं, संगीत और नृत्य की सात्विक शिक्षा देने वाले उत्तम विद्यालय हैं, पण्डितों और सन्तों की ज्ञान-विज्ञानपूर्ण वाणी सुनने के विशाल व्याख्यान गृह हैं, राजा और रङ्क दोनों के लिए समानरूप से हृदय के दुःख का भार दूर करने और आश्वासन पाने के आशानिकेतन हैं और आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्ति देने वाले मोक्षधाम हैं।
प्राचीन काल में हमारे देवमन्दिर ही सामाजिक कार्यं के लिये सभामण्डप थे। देवमन्दिर ही हमारे विद्यागृह थे । देवमन्दिर ही अतिथि भवन थे। देवस्थान ही नाट्यगृह, न्यायालय और धर्माधिष्ठान थे। हमारी सब प्रकार की राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के केन्द्र हमारे ये देवमन्दिर ही थे। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने देव - मन्दिरों रचना और रक्षा करने में मनुष्य जन्म की कृतकृत्यता मानी है। सम्राट् से लेकर एक साधारण प्रजाजन की जीवन की महत्त्वाकांक्षा का वह एक लक्ष्य स्थान माना गया है। किन्तु वर्तमान में मात्र जैनों को छोड़कर इतर हिन्दुओं में यह भावना बहुत शिथिल हो गई है और जैसा कि मैंने पहले सूचित किया, अपने देवस्थानों की रक्षा करने में जितने जैन जागृत रहे हैं उतने जैनेतर जागृत नहीं रहे है। देवमन्दिरों की पवित्रता की रक्षा करने के लिए जैनों ने जिस उदारता का परिचय दिया और जिस भावना को पुष्ट किया है उसका अन्य धर्मावलम्बियों में अधिकांश कहाँ हैं वे अचलेश्वर के उपासक जिन्होंने लाखों मन सुवर्ण अभाव ही देखा जाता है। इसी से जैनों की अपेक्षा इतर हिन्दू का दान वहाँ दिया था ? कहाँ हैं वे भव्य नृपति, जो राज वैभव
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आप में से कुछ लोगों ने आबू की यात्रा की होगी। आबू में अचलगढ़ के ऊपर अचलेश्वर महादेव का बड़ा तीर्थ धाम है। यह अचलेश्वर लाखों क्षत्रियों के इष्ट देव हैं। सिरोही के राजा के तो वे कुलदेवता हो हैं, इसके अलावा भी राजस्थान के सभी राजाओं के परम उपास्य देव हैं। उक्त अचलेश्वर महादेव के मन्दिर की कैसी दयनीय स्थिति है यह देखने वालों से अपरिचित नहीं। उस अचलेश्वर के पास ही टेकरी के ऊपर जैनों का मन्दिर है, वह कितना स्वच्छ, भव्य और सुन्दर है। यदि उक्त दोनों मन्दिरों की है। यदि उक्त दोनों मन्दिरों की तुलना की जाय तो 'कहाँ राजा और कहाँ रङ्क गांगा तैली' यह लोकोक्ति याद आ जाती है। जैनों ने उस समस्त पर्वत के शिखर के मार्ग को पक्का बना दिया है। शिखर के ऊपर छोटी-बड़ी अनेक धर्मशालाओं का निर्माण किया है और यात्रियों के रहने के लिये बहुत अच्छी व्यवस्था की है। पानी की, भोजनालय की तथा ताजे-ताजे फल-फूल, शाक के मिलने की भी व्यवस्था है। देवालय में मानो साक्षात् देवता आकर नाचते हों इतना स्वच्छ और सुरम्य उसका प्रांगण है धूप, दीप और पुष्पों से मन्दिर के मण्डप महक रहे हैं, मानों दूध से धो डाले हों ऐसे वे उज्ज्वल और सुधाधौत हैं। जब कि उक्त अचलेश्वर का मन्दिर मैला, गन्दा, कुरूप और यत्र तत्र कचरे से परिपूर्ण, महीने में भी एक बार जहाँ सफाई न होती हो ऐसा धूलधूसरित दिखाई देता है। मन्दिर के चौक में ही गन्दे बाबा लोग पड़े हुए हों, रसोई पकाते हों, जूठन फेंकते हों, वहीं थूकते हों, पेशाब करते हों- ऐसे दृश्य वहाँ का है। मैं जब कभी वहाँ जाता हूँ तो यह दृश्य देख कर अत्यन्त ग्लानि होती है और हमारी ऐसी धार्मिक अधोगति देख कर मन मे अतिशय संताप होता है।
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