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________________ जैनधर्म और गुजरात १७९ के कारण मानों मुकुटधारी ग्रामवर बन गये हैं और यात्रियों के लिये जिसकी ख्याति दूर देशों में फैली हुई हो। चौलुक्यों के समय में जिस खड़ी की गई विशाल धर्मशालाओं से वे एक छोटे से शहर का दृश्य गुजरात के गाँव-गाँव में और सीम-सीम में सुन्दर शिवालय शोभित उपस्थित कर रहे हैं। होते थे और संध्या समय में उन शिवालयों में होने वाले शंखध्वनि उन देव मन्दिरों के दर्शनार्थ हिन्दुस्तान के कोने-कोने से और घंटानाद से गुर्जर भूमि का समस्त वायुमण्डल शब्दायमान होता प्रत्येक वर्ष में हजारों जैन यात्री आते हैं और उन गाँवों की भूमि को था, इस भक्तभूमि को आज मानो भगवान् शंकर छोड़ कर चले गए पुण्य भू गिन कर वहाँ की धूलि मस्तक पर चढ़ाते हैं। गुजरात के वे हैं, और उनकी यह श्रद्धाशील धरतीमाता शोकग्रस्त होकर संध्याभग्न गाँव जैन मन्दिरों के कारण पुण्यधाम बन गए हैं। सैकडों भव्य वंदन, मंगल गान-वादन को स्थगित करके हताश हो स्तब्ध हो गई जैन प्रति प्रात:काल- 'सेरीसरो संखेसरो पन्चासरे रे' ऐसे नामोत्कीर्तन हो ऐसा प्रतीत होता है। 'हर हर महादेव' का घोष आज गुजरात में पूर्वक, जिस प्रकार हिन्दू लोग काशी, कांची, जगन्नाथपुरी जैसे धामों क्वचित् ही सुना जाता है। भूदेव सिर्फ ब्रह्मभोजन के समय ही मोदक की प्रातः स्तुति करते हैं, उसी प्रकार उन गाँवों का मङ्गल पाठ करते दर्शन से प्रमुदित होकर अपने इष्टदेव का स्मरण और नामोच्चारण हैं। जैनों ने इन आधुनिक मन्दिरों के द्वारा गुजरात की शिल्प कला करते दिखाई देते हैं, इसको छोड़कर उस शैव समाज की शिवोपासना को जीवित रखा है। यदि इस प्रकार जैनों ने मन्दिरों के निर्माण के आज नाम कीी ही रह गई है और शिवालयों का अधिकांश उपेक्षित द्वारा शिल्पियों को प्रश्रय नहीं दिया होता तो आज हिन्दू-स्थापत्य के हो अस्त-व्यस्त हो रहा है। सिद्धान्तानुसार एक साधारण स्तम्भ का भी निर्माण कर सके ऐसे शैव धर्म और जैन धर्म के स्थापत्य शिल्पी दुर्लभ हो जाते। महाराज मूलराज ने सिद्धपुर में रुद्रमहालय की स्थापना की देव मन्दिरों की रचना के पीछे जो उदार और उदात्त और उसमें पूजा-अर्चा के लिए एक सहस्र ब्राह्मण कुलों को उत्तर भावपूर्ण ध्येय रहा हुआ है, जो संस्कार और सदाचार के प्रेरक तत्व भारत से बहुत दान-मान के साथ बुलाकर गुजरात में ब्रह्मपुरिओं का रहे हुए है, उनको हम भूल गये हैं और इसी से आधुनिक मंदिर निर्माण किया। उन ब्रह्मकुलों के निवाहार्थ उसने अनेक गाँव दान में संस्था उप-कारक होने के स्थान में अनेक अंशों में अपकारक हो रही देकर 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' के ताम्रपत्र लिख दिये। मूलराज के वंशजों है। आज मन्दिरों को हमने पुण्यधामों के स्थान में एक प्रकार के ने भी उत्तरोत्तर उनके दान-माल में बृद्धि की और इस प्रकार समस्त पण्यागार जैसे बना रखे हैं। धर्मार्जन के बदले वे द्रव्यार्जन की दुकानें गुजरात में ब्राह्मण वंशजों के सुखपूर्वक जीवनयापन की व्यवस्था कर हो गई हैं। इस विषय में अन्य लोगों की अपेक्षा जैन अधिक दोष पात्र दी गई। पाटन के उक्त राजवंश के पतन के साथ म्लेच्छों के हाथों से हैं यह कटु सत्य जैन बन्धुओं के रोष को स्वीकार करके भी कहना अणहिलपुर और सिद्धपुर के उन विभूतिमान् शिवालयों का भी पडता है। विध्वंस हुआ। उनमें से सिद्धपुर के रुद्र महालय का तो पुनरुद्धार उस वैष्णवों के मन्दिर तो आज उनके नाम के अनुसार 'महाराजों समय में शाह सालिग देशलहरा ने किया। शाह सालिग शत्रुन्जय की हवेलियां' है। उन मन्दिरों-हवेलियों में जाने पर हमें देवमन्दिर का तीर्थ के महान् उद्धारक समराशाह का बन्धु था और जाति से तनिक भी आभास नहीं मिलता किन्तु किसी विलासी गृहस्थ के ओसवाल तथा धर्म से जैन था। किन्तु उसके बाद किसी भी शैव भक्त मकान में हम जा पहुंचे हैं ऐसा भास होता है। गुजरात के वैष्णव जन ने या शिव के उपासक हजारों ब्रह्म-बन्धुओं ने भी उस महालय मन्दिरों को इस प्रकार बनियों के घरों के सदृश आकार प्रकार में की रक्षा या जीर्णोद्धार के लिए कुछ प्रयत्न किया हो यह जानने में किसने और कब परिवर्तित कर दिया उसका कुछ भी पता मुझे नहीं नहीं आया। मुगलों के अधिकार नाश के बाद सद्भाग्य से वह स्थान मिलता। मालवा, मारवाड, मेवाड़ आदि देशों में सैकडों वैष्णव शिवाजी के सैनिक मराठा सरदारों के शासन में आया और भाग्यबल मन्दिर हैं जो स्थापत्य और पावित्र्य की दृष्टि से जैन मन्दिरों के समान से सिद्धराज जैसे ही संस्कारप्रिय श्रीमंत सरकार सयाजी राव महाराज ही भव्य और प्रशस्त हैं। द्वारका, डाकोर या गिरनार जैसे स्थानों में आज उस श्रीस्थल के स्वामी हैं। क्या चक्रवर्ती सिद्धराज की स्वर्गवासी ऐसे ही दो-चार वैष्णव मन्दिर कदाचित् हो सकते हैं, किन्तु इनके आत्मा यह आशा नहीं रखती होगी कि उसकी जीवन साधना के अलावा गुजरात में कहीं भी ऐसे मन्दिर दिखाई नहीं देते। यद्यपि महान् कार्य रूप उस रुद्र महालय का, उसी का सधर्मी और उसी की गुजरात के वैष्णव लोग जैनों की अपेक्षा अधिक धनवान् और प्रियभूमि का समर्थ स्वामी पुनरुद्धार करे? धर्मचुस्त दिखाई देते हैं। कलोल के पास सेरिसा गाँव में पार्श्वनाथ का एक प्रसिद्ध गुजरात का शैवधर्म तो आज बिलकुल शिथिल दशा में है। तीर्थ था जहाँ वस्तुपाल-तेजपाल ने भव्य मन्दिर का निर्माण किया ऐसे समृद्ध और संस्कारयुक्त देश में एक मात्र सोमनाथ को छोड़कर था। म्लेच्छों ने उस स्थान को इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट कर दिया कि दूसरा एक भी बडा शैवधाम या भव्य शिवालय दृष्टिगोचर नहीं होता उसका एक पत्थर भी वहाँ मिलना दुर्लभ हो गया था। किन्तु Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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