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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मन्दबुद्धि कमठ उस सिन्धुनदी के तीर पर बार-बार पत्थरों को उल्लेख्य हैं । पकड़ता था। ऊपर से पड़ने वाली तीव्र धूप से उसके शरीर के अवयव 'मेघदूत' की प्रभावन्विति से अविष्ट होने पर भी 'पार्वाभ्युदय सूख रहे थे । ऊपर हाथ उठाये हुए वह कठिन चिन्तनपूर्वक पंचाग्नि की काव्यभाषा, शैली की दृष्टि से सरल नहीं अपितु जटिल है । फलत: तापने का तप कर रहा था । शीतल छाया वाले पेड़ों से युक्त रामगिरि कथावस्तु सहसा पाठकों को हृदयंगम नहीं होती । समस्यापूर्ति के रूप नामक पर्वत पर वास करता हुआ वह तपस्वियों के लिए मनोरम स्थान में गुम्फन होने के कारण तथा कथावस्तु के बलात् संयोजन के कारण का स्मरण तक नहीं करता था ।
भी मूलके अर्थबोध में विपर्यस्तता की अनुभूति होती है । मूलतः त्वां ध्यायन्त्या विरदृशयना भोगमुक्ताखिलाड़ग्याः 'पार्वाभ्युदय' प्रतिक्रया में प्रणीत एक कठिन काव्य है । शङ्के तष्या मृदुतलमवष्टम्य गण्डोपधानम् । 'पार्वाभ्युदय' समस्यापूर्तिपरक काव्य होने पर भी इसमें कविकृत 'हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालक त्वा अभिनव भाव-योजना अतिशय मनोरम है । किन्तु सन्देश कथन को दिन्दोर्दैन्यं त्वदुपसरणक्लिष्ट कान्तिर्विभर्त्ति ।।' रमणीयता 'मेघदूत जैसी नहीं है । इसमें जैनधर्म के किसी सिद्धान्त का
(सर्ग३: श्लो० २७) कहीं भी प्रतिपादन नहीं हुआ है, किन्तु कैलासपर्वत और महाकाल-वन विरह की शय्या पर जिसका सारा शरीर निढाल पड़ा है, ऐसी में जिनमन्दिरों और जिन-प्रतिमाओं का वर्णन अवश्य हुआ है । जगहवसुन्धरा तुम्हारा ध्यान करती हुई अपने कपोलतल में कोमल तकिया जगह सूक्तियों का समावेश काव्य को कलावरेण्य बनाता है । इस प्रसंग लिये लेटी होगी; संस्कार के अभाव में लम्बे पड़े अपने केशों में आधे में 'रम्यस्थानं त्यजति न मनो दुर्विधानं प्रतीहि' (१.७४); 'पापापाये छिपे मुख को हाथ पर रखे हुए होगी, उसका वह मुख मेघ से आधे ढके प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' (२.६५); कामोऽसहयंघट यतितरां क्षीण कान्तिवाले चन्द्रमा की भाँति शोचनीय हो गया होगा, ऐसी मेरी विप्रलम्भावतारम् ' (४.३७) आदि भावगर्भ सूक्तियाँ द्रष्टव्य है। आशंका है।
शब्दशास्त्रज्ञ आचार्य जिनसेन का भाषा पर असाधरण अधिकार प्रौढ काव्यभाषा में लिखित प्रस्तुत काव्य मेघदूत के समान है। इनके द्वारा अप्रयुक्त क्रियापदों का पदे-पदे प्रयोग ततो अधिक शब्दही मन्दाक्रान्ता छन्द में आबद्ध है । तेईसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी की चमत्कार उत्पन्न करता है । बड़े-बड़े वैयाकरणों की तो परीक्षा ही तीव्र तपस्या के अवसर पर उनके पूर्वभव के शत्रु शम्बर या कमठ द्वारा 'पाश्र्वाभ्युदय' में सम्भव हुई है। इस सन्दर्भ में आचार्य कविश्री के द्वारा उपस्थापित कठोर कायक्लेशों तथा सम्भोगशृंगार से संवलित प्रलोभनों प्रयुक्त 'ही' ('हि' के लिए); स्फावयन्' (= वर्धयन्); प्रचिकटयिसुः' (= का अतिशय प्रीतिकर और रुचिरतर वर्णन इस काव्य का शिल्पगत प्रकटायितुमिच्छु:); 'वित्तानिध्नः' (=वित्ताधीन:); 'मङ्घ (=शीघ्रण); वैशिष्टय है।
'सिषिधूषः'(=सिद्धा देवताविशेषाः); 'पेरीयस्व' ( अत्यर्थं पानं विधेहि); मेघदूत जैसे श्रृंगार काव्य को शान्तरस के काव्य में परिणत 'खेन' (-गगनेन); प्रोथिनी' (=लम्बोष्ठी); 'मुरुण्ड:' (=वत्सराजो नरेन्द्रः); करना कविश्री जिनसेन की असाधारण कवित्व शक्ति को इंगित करता 'हृपयन्त्याः ' (=विडम्बयन्त्या:) 'निर्दिधक्षेत' (=निर्दग्धुमिच्छेत); 'वैनयार्थम्' है । संस्कृत के सन्देशकाव्यों या दूतकाव्यों में सामान्यतया विप्रलम्भ (=विजयस्यार्थस्येदं) 'जिगलिषु (=गलिमिच्छ); 'शंफलान्पम्फलीर्ति' शृंगार तथा विरह-वेदना की पृष्ठभूमि रहती है । परन्तु जैन कवियों ने (=शं सुखमेव फलं येषां तान् भृशं फलति); गह्नमानाः' (=जुगुप्सावन्न:); सन्देशकाव्यों में श्रृंगार से शान्त की ओर प्रस्थिति उपन्यस्त कर एतद्विध 'जाघटीति' (=भृशं घटते) आदि नातिप्रचलित शब्द विचारणीय है। काय-परम्परा को नई दिशा प्रदान की है। त्याग और संयम को जीवन 'पार्वाभ्युदय' आचार्य जिनसेन का अवश्य ही एक ऐसा का सम्बल समझने वाले जैन कवियों में श्रृंगारचेतनामूलक काव्य-विधा पार्यन्तिक काव्य है, जिसका अध्ययन-अनुशीलन कभी अशेष नहीं में भारत के गौरवमय इतिहास तथा उत्कृष्टतर संस्कृति के महार्थ तत्त्वों होगा। काव्यात्मक चमत्कार, सौन्दर्य-बोध, बिम्बविधान एवं रसानुभूति का समावेश किया है । सन्देशमूलक काव्यों में तीर्थंकर जैसे शलाका के विविध उपादान ‘पार्वाभ्युदय' में विद्यमान हैं । निबन्धनपटुता, पुरुषों के जीवनवृत्तों का परिगुम्फन किया है । 'मेघदूत' के श्लोकों के भावानुभूति की तीव्रता, वस्तुविन्यास की सतर्कता, विलास-वैभव, चरणों पर आश्रित समस्यापूर्ति के बहुकोणीय प्रकारों का प्रारम्भ कविश्री प्रकृति-चित्रण आदि साहित्यिक आयामों की सघनता के साथ ही जिनसेन द्वितीय के 'पाश्र्वाभ्युदय' से ही होता है। यही नहीं, जैन काव्य- भोगवाद पर अंकुशारोपण जैसी वर्ण्य वस्तु का विन्यास 'पार्वाभ्युदय' साहित्य में दूतकाव्य की परम्परा का प्रवर्तन भी 'पार्वाभ्युदय' से ही हुआ की काव्य प्रौढि को सातिशय चारुता प्रदान करता है। है। इस दृष्टि से इस काव्य का ऐतिहासिक महत्त्व है।
काव्यकार आचार्य जिनसेन ने अर्थव्यंजना के लिए ही मासिक पार्वाभ्युदय' से तो 'अभ्युदय' नामान्त काव्यों की परम्परा ही प्रयोग-वैचित्र्य से काम लिया है । 'काव्यावतर' में वर्णित कथा-प्रसंग प्रचलित हो गई । इस सन्दर्भ में 'धर्मशर्माभ्युदय' (हरिश्चन्द्र : तेरहवीं के आधार पर यदि आचार्य जिनसेन को कालिदास का समकालीन माना शती) 'धर्माभ्युदय' (उदयप्रभसूरि: तेरहवीं शती); 'कप्फिणाभ्युदय' जाय तो, यह कहना समीचीन होगा की भारतीय सभ्यता के इतिहास के (शिवस्वामी: नवमशती) : 'यादवाभ्युदय' (वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक : जिस युग में इस देश की विशिष्ट संस्कृति सर्वाधिक विकसित हुई थी, तेरहवीं शती ) 'भरतेश्वराभ्युदय' (आशाधर: तेरहवीं शती) आदि काव्य उसी युग में 'पार्वाभ्युदय के रचयिता विद्यमान थे। वह कालिदास की
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