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________________ जैन वास्तुकला-संक्षिप्त विवेचन डॉ०शिवकुमार नामदेव भवन-निर्माण एवं शिल्प-विज्ञान का नाम वास्तुकला है। अशोक एवं दशरथ ने आजीवक भिक्षुओं के रहने के लिए निर्मित इसका उद्भव और विकास मानव-सभ्यता के विकास की कहानी से कराया था। इनकी दीवारें शीशे की भाँति चिकनी एवं चमकदार हैं। सम्बद्ध है। मानव का प्रारंभिक जीवन विचरणशील रहा है। कालांतर शंगकाल की कला का विश्वकला के इतिहास में महत्त्वपूर्ण में वह क्रमश: गुहा आदि के रूप में विकास करते हुए सुदृढ़ भवनों योगदान है। इस काल की कला की विशेष उपलब्धि मूर्ति कला और तक पहुँचा होगा। मानव की इसी क्रमिक यात्रा का सफल परिणाम वास्तुकल है। जिस समय पश्चिमी भारत में बौद्ध शिल्पी लेणों वास्तुकला है। (गुहाओं) का निर्माण कर रहे थे, लगभग उसी समय कलिंग (उड़ीसा) यद्यपि भारतीय वास्तुकला का इतिहास भी मानव-विकास में जैन शिल्पी भिक्षुओं के निवास के लिए कुछ गुफाओं का उत्खनन के युग से मानना पड़ेगा, तथापि विशुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से हम कर रहे थे। ये गुफाएँ भुवनेश्वर से ५ मील उत्तर पश्चिम की ओर इसका उदय सिन्धु-सभ्यता से मानते हैं। यद्यपि वास्तुकला सम्बन्धी उदयगिरि और खण्डगिरि नामक पहाड़ियों में बनाई गई थीं उदयगिरि वर्णन विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों-वेद, ब्राह्मण और आगम तथा जातकों में १९ खण्डगिरि में १६ गुफाएँ हैं। उदयगिरि की प्रमुख गुफाओं में मिलता है, किन्तु वे जिज्ञासा तृप्त नहीं कर सकते। अत: हमें में-रानीगुम्फा, अलकापुरी, मंचपुरी, गणेश और हाथीगुम्फा हैं। हाथीगुम्फा सिन्ध-सभ्यता के अवशेषों से ही संतोष करना पड़ता है। वास्तुकला में ही खारवेल का सुप्रसिद्ध शिलालेख है। खण्डगिरि की १६ का प्रवाह समय की गति और शक्ति के अनुरूप बहता गया, समय- गुफाओं में भवमुनि, आकाशगंगा, देवसभा, अनंतगुफा मुख्य हैं। समय पर कलाविज्ञों ने इसमें नवीनतत्वों का समावेश कराया, मानों कोसम एवं इलाहाबाद के निकट पभोसा में दो गुफाएँ हैं। इन गुफाओं वह स्वकीय सम्पत्ति ही हो। निर्माण-पद्धति, औजार आदि में भी में शुंगकालीन लिपि में लेख भी अंकित हैं। इससे ज्ञात होता है कि क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। इन गुफाओं का निर्माण भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायियों के लिए जैन-वास्तुकला के पूर्वकालीन अवशेष अत्यल्प मात्रा में किया गया था।३।। उपलब्ध हुए हैं, जो बौद्ध वास्तुकला से विशेष-भिन्नता नहीं रखते। स्तूपों का निर्माण तीर्थकरों एवं स्थविरों के भस्मावशेषों के जैनों ने अर्हन्तों (मुनियों) के रहने के लिए हजारों बसतिका एवं ऊपर किया गया था। इस प्रकार का एक स्तूप राजगिरि के निकट बिहार बनवाए, गुफाओं एवं उपाश्रयों का निर्माण किया, मृतक- विपुलगिरि पहाड़ी पर है। वैशाली का स्तूप मुनिसुव्रत एवं मथुरा का अवशेषों के लिए हजारों चैत्य एवं स्तूप खड़े किए, पंचकल्याणकों स्तूप सुपार्श्वनाथ को समर्पित किया गया था । जिनप्रभसूरि (१४वीं की स्मृति में मुख्य-मुख्य स्थलों पर तीर्थ स्थापित किए, मूर्तियों की सदी ई०)के अनुसार मथुरा के स्तूप का पुनर्निमाण पार्श्वनाथ के समय पूजा-प्रतिष्ठा के लिए सहस्रों मंदिर एवं सहस्रकूट तथा कीर्ति- (८००ई०पू०) में किया था एवं कालांतर में उसे नवीन स्थिति में प्रभावक अनेक मानस्तंभ एवं कीर्तिस्तंभ खड़े किए। लाने का श्रेय बप्पभट्टसूरि को है। जैन मूर्ति-शिल्प के विषय में पूरा डा० प्राणनाथ विद्यालंकार' को प्रभासपाटण से एक ताम्रपत्र श्रेय मथुरा को है, क्योंकि सबसे प्राचीन जैन प्रतिमाएँ एवं स्तूप उपलब्ध हआ था। इसमें लिखा है कि बेबीलोन के नृपति नेबुचंदनेजार मथुरा में है, मथुरा में दो जैनस्तूप थे-पहला शृंगकालीन और दूसरा ने रैवतगिरि के नेमिनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। जैन कुषाण-कालीन। कंकालीटीला नामक स्थान में इन स्तूपों के सहस्राधिक साहित्य इस घटना पर मौन है। उक्त लेख से स्पष्ट है कि ई०पू० शिल्पावशेष प्राप्त हुए हैं। फ्यूरर के समय किए गए उत्खनन से छठी शती में गिरनार पर जैन मंदिर था। जूनागढ़ के पूर्व बाबाप्यारा प्राप्त भगवान् मुनिसुव्रत की एक प्रतिमा के लेख पर 'देवनिर्मित' के नाम से जो मठ प्रसिद्ध है, वहाँ पर जैन गुफाएँ उत्कीर्णित हैं। स्तूप का उल्लेख है। जिनप्रभसूरिरचित 'तीर्थकल्प' में इस स्तूप की मगध के शासक शिशुनाग एवं नंद ने पाटलिपुत्र में पाँच चर्चा है। उनके अनुसार यह स्तूप प्रारम्भ में सोने का था और उस पर जैनस्तूप बनवाये थे। चीनी यात्री ह्वेनसांगरे ने भी इन पंच जैन स्तूपों बहुमूल्य रत्न जड़े थे। इसका निर्माण कुबेरादेवी नामक महिला द्वारा का उल्लेख अपने यात्रा-विवरण में करते हुए लिखा है कि अबौद्ध सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के सम्मान में किया गया था। बाद में राजा द्वारा वे खुदवा डाले गए। २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय में स्तूप को ईटों से आवेष्टित किया मौर्यकालीन जैन वास्तुकला से सम्बन्धित गुहा-गृह बराबर गया। स्तूप के बाहर एक पाषाण-मंदिर भी बनाया गया। 'तीर्थंकल्प' एवं नागार्जुनी पहाड़ियों पर विद्यमान हैं। इन गुफाओं को मौर्यसम्राट में आगे लिखा है कि भगवान् महावीर के ज्ञानप्राप्ति से तेरह सौ वर्ष Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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