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________________ ६६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम हो जाने से पापजनक (दबाता) हुआ चढ़ता है और क्षपकश्रेणी पर कर्मों का क्षय (नाश) करता व्यापार सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, पर संज्वलन और नोकषाय का हुआ चढ़ता है। उपशमश्रेणी में ८,९,१० एवं ११ ये चार गणस्थान उदय रहने से संयम के मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद२ भी होता हैं जब कि क्षपकश्रेणी में ८,९,१०, एवं १२ ये चार गुणस्थान हैं। है। अतएव ऐसे जीव को प्रमत्तविरत कहा जाता है६३ । इस गुणस्थान यह सभी गुणस्थान क्रमश: होते हैं और आत्मध्यानी मुनियों के ही होते में महाव्रती संयत साधक सकलसंयम का पालन करते हुए शान्ति का हैं। तो अनुभव करता है पर कभी-कभी प्रमादवश (असावधानी या उदासीनता ८.अपूर्वकरण गुणस्थान- अध:प्रवृत्तकरण को बिताकर के कारण) संयमपालन में बाधा भी पड़ जाती है। सातिशय अप्रमत्त साधक जब प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धता को लिये अध्यात्म-विकास की इस भूमिका में जीव के चारित्र की हुए अपूर्व जाति के परिणामों को करता है तब उसे अपूर्वकरण अपेक्षा क्षायिकभाव होता है, पर सम्यक्त्व की अपेक्षा औपशमिक, गुणस्थानवर्ती कहा जाता है । इसमें जीव पूर्व समय में कभी प्राप्त नहीं क्षायिक, क्षायोपशमिक में से कोई भी एक भाव हो सकता है, क्योंकि हुए ऐसे अपूर्व-अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते हैं । इसीलिए यहाँ भावसंयम की अपेक्षा है। इसे अपूर्वकरण कहा जाता है७३ । अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव किसी ७.अप्रमत्तविरत गुणस्थान- संज्वलन और नोकषाय का नये कर्म का उपशमन या क्षपण तो नहीं करते, पर मोहनीय कर्म की मन्द उदय होने पर सकलसंयमधारी मुनि के जब प्रमाद का भी अभाव प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने के लिए उद्यत होते हैं और पूर्वबद्ध हो जाता है तब वह अप्रमत्तविरत कहलाता है । यह आत्मचिन्तन और कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा५, गुणसंक्रमण ६ स्थितिखण्डन और आत्मशोधन के प्रति बड़ा सावधान होता है ।६४ इसके दो भेद हैं - अनुमागखण्डन करते हैं। १.निरतिशय और २.सातिशय । इस गुणस्थान में भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणाम कभी भी संज्वलन का मन्दोदय होने से प्रमाद का अभाव होने पर जब सदृश नहीं होते, पर एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश और केवल सामान्य ध्यानावस्था रहती है और चारित्रमोहनीय की २१ विसदृश दोनों ही होते हैं.९ । इसका काल अन्तर्मुहूर्त है तथा परिणाम प्रकृतियों का जब तक उपशमन या क्षपण कार्य प्रारम्भ नहीं होता तब असंख्यातलोक-प्रमाण है और वे उतरोत्तर प्रतिसमय समानवृद्धि को तक की अवस्था स्वस्थान या 'निरतिशय अप्रमत्त' कही जाती है । यह लिये हुए होते हैं । इसमें नियम से अनुकृष्टि रचुना नहीं होती । (क्योंकि अप्रमादी साधक महाव्रतों६५ मूलगुणों६६ और शीलव्रतों से युक्त होता भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में यहाँ सादृश्य नहीं पाया जाता।) है और स्वपर के विवेक (भेदविज्ञान) सहित आत्मध्यान में लीन रहता ९.अनिवृत्तिकरण गुणस्थान- अन्तर्मुहूर्तमात्र इस गुणस्थान है। यह श्रेणी-आरोहण के सम्मुख नहीं होता६८ | प्रमाद के उद्रेक और में शरीर, अवगाहना आदि बाह्य कारणों तथा ज्ञानावरणादिक कर्मों के शमन से कभी-कभी यह सातवें से छठे और छठे से सातवें गुणस्थान क्षयोपशम आदि अन्तरङ्ग करणों की अपेक्षा भेद होते हुए भी समसमयवर्ती में भी आता-जाता रहता है। जैसे आँखों की पलकें (जाग्रत अवस्था में) नाना जीवों के परिणामों की विशुद्धि में परस्पर कोई भेद (निवृत्ति या बन्द होती हैं और खुलती रहती हैं वैसे ही यह छठे और सातवें विषमता) नहीं पाया जाता । इसीलिए इसे अनिवृत्तिकरण कहा गया गुणस्थानों में आता-जाता रहता है । एक मुहूर्त में वह सैकड़ों बार है१ । परिणामों में विशुद्धि की सदृशता का कारण यह है कि उतरता-चढ़ता है । एक ओर अप्रमादजन्य सुखानुभव और दूसरी ओर अनिवृत्तिकरण के जितने समय हैं उतने ही उसके परिणाम हैं । इसलिए प्रमादजन्य वासनाएँ उसकी मन:स्थिति को चंचल बनाये रखते है। प्रत्येक समय में एक ही परिणाम होता है । इसी से भिन्नसमयवर्ती जीवों जब अप्रमत्त साधक के आत्मिक भावों का रूप अत्यन्त शुद्ध के परिणामों में सर्वथा विसदृशता और एकसमयवर्ती जीवों के परिणामों हो जाता है तो वह निरतिशय अप्रमत्त साधक कहलाता है । यह में सर्वथा सदृशता पाई जाती हैं। अस्खलित रूप से उत्क्रान्ति करता है और श्रेणी चढ़ने के सम्मुख हो चूँकि इस गुणस्थान में भावोत्कर्ष की निर्मल विचारधारा और जाता है। जैसा कि कहा गया है भी तीव्र हो जाती है, अत: आत्मा के अत्यन्त निर्मल परिणाम ध्यानरूपी चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों६९ के उपशम या क्षय करने अग्नि की सहायता से कर्मरूपी वन को दग्ध कर देते हैं ।८२ ध्यानस्थ को आत्मा के अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन संयत साधक या तो कर्मों को दबा (उपशमन कर) देता है या उन्हें नष्ट परिणाम निमित्त भूत हैं । सातिशय अप्रमत्त इनमें से नियम से (क्षय) कर देता हैं। यद्यपि यहाँ संज्वलनचतुष्क की मन्दता के कारण अध:प्रवृत्तकरण' को करता है.२ । इसका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है और निर्मल हुई आत्मपरिणति से क्रोध, मान, माया तथा वेद का तो समूल परिणाम असंख्यातलोक प्रमाण है । ये परिणाम ऊपर-ऊपर सदृश वृद्धि नाश हो जाता है, पर स्थूल लोभकषाय विद्यमान रहता है। इसी कारण को प्राप्त होते गए हैं। इस गुणस्थान को बादर साम्पराय' गुणस्थान भी कहा जाता है । 'बादर' दो श्रेणियाँ - सप्तम गुणस्थान के आगे उपशम और क्षपक- का अर्थ स्थूल है और 'साम्पराय' का तात्पर्य संसार-परिभ्रमण का ये दो श्रेणियाँ होती हैं । उपशमश्रेणी पर जीव कर्मों का उपशम करता कारणभूत 'कषायोदय' है-३ | Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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