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________________ गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण १०.सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान- मोहनीय कर्म का क्षय या जीव का नीचे के गुणस्थानों में कभी पतन नहीं होता। मोहनीय कर्म उपशम करके आत्महितेच्छु साधक जब समस्त कषायों को नष्ट कर देता के सर्वथा अभाव से यहाँ पर एक क्षायिकभाव २ ही माना गया। है, केवल सूक्ष्म लोभ-कषाय का उदय ही शेष रहा जाता है तब आत्मा १३. सयोगकेवली गुणस्थान- क्षीणकषायी वीतराग की यह उत्कर्ष-स्थिति 'सूक्ष्मसाम्पराय' के नाम से अभिहित होती छद्मस्थ जब अपने अन्तिम समय में एकत्ववितर्क ३ नामक शुक्लध्यान है । जैसे धुले हुए कसुंभी वस्त्र में लालिमा शेष रह जाती है वैसे ही के प्रभाव से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-कर्म की प्रकृतियों का इस गुणस्थानवर्ती जीव के सूक्ष्म लोभकषाय का उदय पाया जाता है। भी सर्वथा क्षय कर देता है तो उसके अतीन्द्रियदर्शी केवलज्ञान प्रकट चाहे उपशम श्रेणी का आरोहणकर्ता हो चाहे क्षपक श्रेणी का हो जाते हैं । यह आत्म-परिणति ही सयोग-केवली की स्थिति है। योगों अरोहणकर्ता, पर जो जीव सूक्ष्म लोभ के उदय का अनुभव कर रहा का सद्भाव होने से ‘सयोग' और 'केवल' (असहाय) ज्ञानदर्शन के होता है वह यथाख्यातचारित्र-६ से कुछ ही न्यून रहता है अर्थात् स्वामी होने से इसे 'केवली' कहा गया है । इस गुणस्थान के प्रथम सूक्ष्मसाम्परायी के यथाख्यातचारित्र के प्रकट होने में कुछ ही कमी रहती समय में छद्मस्थता का व्यय (अभाव) और केवलित्व का उत्पाद (प्राप्ति) एक साथ होता है । कहा गया है-- ११. उपशान्तकषाय (वीतराग छद्यास्थ) गुणस्थान- जिन्होंने केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अज्ञानान्धकार को निर्मलीफल से युक्त जल की तरह अथवा शरद्ऋतु में ऊपर स्वच्छ हो सर्वथा नष्ट कर दिया है तथा जिन्हें नौ केवल-लब्धियाँ ६ प्राप्त हो जाने जाने वाले सरोवर के जल की भाँति सम्पूर्ण मोहनीयकर्म के उपशम से से ‘परमात्मा'९७ का व्यपदेश (संज्ञा) प्राप्त हो गया है तथा इन्द्रिय, उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को 'उशान्तकषाय' कहते हैं।८ आलोक आदि की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञानदर्शन से युक्त होने के कारण इसकी जघन्यस्थिति एक समय व उत्कृष्टस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उपशान्तकषायी केवली' और योग से युक्त होने के कारण सयोग तथा घातिया कर्मों जीव आगे के गुणस्थानों को सीधे प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि बिना से रहित होने के कारण 'जिन' कहा जाता है उनका स्वरूप-विशेष ही क्षपक श्रेणी चढ़े कोई भी जीव दसवें आदि गुणस्थानों में नहीं पहुँच सयोगकेवली के नाम से जाना जाता है । सकता। जैन तीर्थकर इसी अवस्था को प्राप्त कर धर्म का प्रवर्तन करते यहाँ पर मोहनीय कर्म उपशान्त तो अवश्य हो जाता है, पर हैं, जगह-जगह विहार कर प्राणिमात्र के हित का मार्ग प्रशस्त करते हैं, रहता सत्ता में ही है । अत: जैसे ही मोहोदय होता है, वह नियम से इस भव्य जीवों को मोक्ष-मार्ग का उपदेश देकर संसार में मोक्षमार्ग को गुणस्थान से च्युत होकर नीचे के गुणस्थानों में गिरता हुआ दूसरे या प्रकाशित करते हैं । उपदेश देने में इनके वचनयोग का तथा गमनादिक पहले गुणस्थानों में पहुँच जाता है । अत: यहाँ से अध:पतन नियमतः हलन-चलन में काययोग का एवं मनःपर्ययज्ञानी या अनुत्तरादि के देवों होता है । बारहवें गुणस्थान में पहुँचने के लिए कर्मों का क्षय करते हुए की शंकाओं के समाधान में इनके मनोयोग का प्रयोग होता है।९। जब क्षपक श्रेणी का आरोहण करना अनिवार्य है । इस गुणस्थानवी जीव तक अर्हन्त केवली के मन, वचन और काय का व्यापार चलता है तब राग का उदय न होने से और सभी कषायों का उपशमन हो जाने से तक वे सयोगकेवली ही रहते हैं । यह अवस्था कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त वीतराग होते हैं और घातिया कर्मों-९ का अभी सद्भाव होने से ये तक और अधिक-से-अधिक कुछ कम एक करोड़ पूर्व१०० तक रहती छद्यस्थ भी होते हैं अर्थात् घातिया कर्मरूप छद्य में स्थित होने से ये है। छद्यस्थ भी हैं । इसीलिए ये 'वीतराग' छद्यस्थ भी कहलाते है। १४. अयोगकेवली गुणस्थान- जब अर्हन्त केवली ध्यानस्थ १२.क्षीणकषाय गुणस्थान-क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ प्रशान्त होकर अपने मन, वचन-काय का सब व्यापार अवरूद्ध कर अघातिया निर्ग्रन्थ साधक मोहनीय कर्म को धीरे-धीरे नष्ट करता हुआ जब उन्हें कर्मों५०१ का भी क्षय कर देते हैं तो उन्हें अयोगी केवली कहा जाता है। पूर्णतया नष्ट कर डालता है तो उसका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे ये १८ हजार शीलों के स्वामी हो जाते हैं, उनके कर्मों के आने के द्वार हुए निर्मल जल की भाँति स्वच्छ हो जाता है, उसे वीतरागदेव ने (आस्रव) सर्वथा अवरूद्ध हो जाते हैं और कर्मरज से सर्वथा विमुक्त हो क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहा है ।९१ इस गुणस्थान का काल भी योगों से भी सर्वथा रहित हो जाते हैं।०२ । अन्तर्मुहूर्त है। केवल क्षपकश्रेणी पर आरोहण करने वाले जीव ही दसवें इस गुणस्थान का काल अ, इ,उ,ऋ, और ल-इन पाँच लघु गुणस्थान के बाद सीधे इस गुणस्थान में पहुँचते हैं। वर्णों के उच्चारण काल के बराबर होता है । ये अपने गुणस्थान काल मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से यहाँ पर जीव की के द्विचरम समय में सत्ता की ८५ प्रकृतियों में से ७२ का नाश करते आत्म-परिणति अत्यन्त निर्मल हो जाती है। अत: यह अपने द्विचरम हैं तथा अन्तिम समय में शेष १३ प्रकृतियों का नाश कर लोकाग्र में समय में निद्रा, निद्रा-निद्रा का क्षय करता है और अन्तिम समय में स्थित सिद्ध-शिला पर ऋजुगति से चलकर एक समय में पहुँच जाते ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय प्रकृतियों का क्षय कर डालता है हैं। वे संसार से मुक्त हो जाते हैं। जैसे बीज के बिल्कुल दग्ध हो जाने और नियम से यह तरहवें गणुस्थान में पहुँच जाता है । इस गुणस्थानवर्ती पर अंकुर पैदा नहीं होता वैसे ही कर्मरूपी बीज के जल जाने पर (समस्त Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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