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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मार्ग स्वाध्याय है।" इसी में आगे कहते हैं “घर-घर, कुटुम्ब-कुटुम्ब ऊंचे स्तर वाले लोगों की नकल करने से इच्छाएं बढ़ती हैं, लेकिन और जाति-जाति में लड़ाई,झगड़े, कलह, क्लेश, और वैर-विरोध चल उनकी पूर्ति न कर पाने के कारण वह मानसिक तनावों से ग्रसित रहता रहे हैं, वे स्वाध्याय से ही दूर हो सकते हैं ।४९ सामायिक से ही है। अत: सादा जीवन जीने से इन तनावों से मुक्त हुआ जा सकता है। समताभाव आता है। सामायिक के बारे में उपाध्याय अमर मुनि का कहना है- “सामायिक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है। यदि यह ठीक रूप भावनाओं से तनाव मुक्ति से जीवन में उतर जाए तो संसार-सागर से बेड़ा पार हैं'५० अर्थात व्यक्ति भोजन-भजन में सात्त्विकता होने से प्राणी-प्राणी का हृदय तनाव-मुक्त जीवन यापन कर सकता है । मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ भावों से आप्लावित रहता है । जैन धर्मानुसार मैत्री, प्रमोद से मन में प्रसन्नता, निर्भयता और आत्मिक अहिंसा द्वारा तनाव मुक्ति आनन्द का संचार होता है। करूणा मानवीय संवेदन के प्रति जागरूकता जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है-- अहिंसा । व्यक्तिगत तथा सहानुभूति और माध्यस्थ भावना व्यक्ति में तटस्थता प्रदान करती तनावों के साथ-साथ विश्वव्यापी तनाव भी इससे दूर हो सकते हैं। है, हीन भावनाओं, निराशाओं, राग-द्वेषात्मक विकल्पों से पीड़ित मन अहिंसा से दया, दान, परोपकार, सहनशीलता, सहिष्णुता, प्रेम की को शक्ति प्रदान करती है ।५४ निश्चय ही मैत्री प्रमोद, करूणा और उदात्त भावनाएं जागृत होती हैं । अहिंसा द्वारा सम्पूर्ण विश्व में एकता माध्यस्थ भावनाएँ जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती हैं । जिससे और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है । आज महात्मा गांधी मानव तनाव-रहित हो समस्त सदगुणों का उद्भव अपने जीवन में करता और उनकी अहिंसा विश्वविख्यात है। अपरिग्रह से तनाव मुक्ति चिन्तन रहितता से तनाव मुक्ति अहिंसा को ग्रहण करने वाला परिग्रह से स्वत: मुक्त हो जाता अधिक सोचना या चिन्तन करना ही मानसिक तनाव का है। अपरिग्रह की भावना से तृष्णा शांत हो जाती है, जिससे सन्तोष प्रमुख कारण है । अतीत का चिन्तन और भविष्य की कल्पना ही तनाव प्राप्त होता है और स्वत: ही तनाव समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि अपरिग्रह को उत्पन्न करती है ।५५ तनाव से मुक्त होने का अर्थ है वर्तमान में जीवन का अर्थ ही है - पदार्थ के प्रति ममत्व या आसक्ति का न होना । वस्तुतः यापन करना । अतीत के चिन्तन व भविष्य की कल्पना को छोड़ना ममत्व या मूर्छा भाव से संग्रह करना परिग्रह कहलाता है अर्थात् मूर्छा होगा। तभी मन को विश्राम मिलेगा व तनाव दूर होगा ।५६ चिन्ता रहित ही परिग्रह है ।५१ परिग्रह को जैन आगम में एक ऐसा वृक्ष माना गया होकर ही आनन्दमय जीवन जिया जा सकता है। है, जिसके स्कन्ध अर्थात् तने लोभ, क्लेश और कषाय हैं ।५२ अत: अपरिग्रह की भावना व्यक्ति को तनाव रहित कर सकती है। इन्द्रिय संयम द्वारा तनाव मुक्ति सभी इन्द्रियां अपना-अपना पोषण चाहती हैं । यदि इनपर अनेकान्त द्वारा तनाव मुक्ति नियन्त्रण न किया जाये तो इनकी इच्छा, लालसा बढ़ती चली जायेगी, अनेकान्त के सिद्धान्त से दुराग्रह समाप्त होते हैं । इस जिसका कोई अंत नहीं है । इसीलिए तनावों की वृद्धि जारी रहती है। सिद्धान्त से एक-दूसरे को समझने का प्रयास करने से तनाव दूर होगें। जो व्यक्ति पाँच इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर लेता है,वह तनाव इसी सन्दर्भ में साध्वी कनकप्रभा का कहना है- “वर्तमान के सन्दर्भ में मुक्त हो जाता है । भगवान् महावीर ने कहा भी है -- भी स्याद्वाद की अर्हता निर्विवाद है । इसमें वैयक्तिक, सामाजिक, एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं का सुन्दर समाधान सन्निहित दसहा उ जिणिताणं, सव्व सतु जिणामह ।। ५७ है। जैन दर्शन की यह मान्यता सम्पूर्ण विश्व के लिए एक वैज्ञानिक देन इसप्रकार पाँच इन्द्रियाँ, मन और चार कषाय --इन दस को है।५३ अनेकान्तिक दृष्टि का दैनिक जीवन में यदि व्यवहार होने लगे तो जीतने वाला आत्मिक शत्रुओं को जीत कर तनाव मुक्त हो जाता है । निश्चय ही व्यक्ति, समाज व राष्ट्र में व्याप्त तनाव-द्वन्द समाप्त होकर समन्वय, स्नेह, सद्भावना, सहिष्णुता तथा उपशम-मृदुता जैसे उदात्त कषाय मंदता और तनाव मुक्ति गुणों का प्रादुर्भाव होगा, जो निश्चय ही जीवन दर्शन को एक नई दिशा कषाय यानी क्रोध, मान, माया और लोभ के वश में मानव देगा। तनाव ग्रस्त रहता है। इसके विपरीत इनकी मंदता ही तनाव मुक्तता है। कषाय आत्मा के शत्रु हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में तो कषाय को अग्नि कहा सादा जीवन-उच्च विचार से तनाव मुक्ति गया है।५८ इनको जीतने का उपाय दशवैकालिक५९ में बताते हए कहा प्रत्येक व्यक्ति उच्चस्तरीय जीवन जीना चाहता है । अपने से गया है Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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