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________________ निष्काम सेवक : भाई भूपेन्द्रनाथ जी प्रो० सागरमल जैन* भाई साहब श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन से मेरा प्रथम परिचय मेरे पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक पद पर नियुक्ति के पश्चात् हुआ इसके पूर्व मेरी प्रतिनियुक्ति के सम्बन्ध में जो भी चर्चा हुई, वह पंडित दलसुखभाई मालवणिया, श्री शादीलाल जी जैन और श्री गुलाब चन्द्र जैन से हुई। मेरे वाराणसी आगमन के पश्चात् जब प्रथम बार भाई साहब भूपेन्द्रनाथ जी वाराणसी पधारे, तब ही वे मेरे निकट परिचय में आये। यद्यपि प्रथम बार वे होटल में रुके किन्तु बाद में मेरे आग्रह से परिवार के साथ ही रुकने लगे। क्रमश: हमारे बीच की दूरी समाप्त हो गयी और वे मुझे अपना एक विश्वस्त साथी मानने लगे। यह अभिन्नता इस सीमा तक आगे बढ़ी कि ये मुझे छोटा भाई ही मानने लगे। स्वभाव से भाई भूपेन्द्र नाथ जी किसी पर सहज विश्वास नहीं कर पाते, किन्तु जब वे किसी पर विश्वास कर लेते हैं तो फिर वह पूरी तरह विश्वास कर लेते हैं । मेरे लिये यह सौभाग्य का विषय ही रहा कि १८ वर्षों की इस अवधि में हम दोनों के बीच अविश्वास की कोई रेखा न खिंच पाई और न हमारी अभित्रता में कोई कमी आ पायी। भाई साहब भूपेन्द्रनाथ जी से मुझे जो स्नेह, आत्मीयता और विश्वास मिला, मैं समझता हूँ पार्श्वनाथ विद्यापीठ के हेतु मैं जो कुछ भी कर सका वह उसी का परिणाम है । किसी भी संस्था की सफलता और असफलता का रहस्य उसके कार्यकर्ताओं के बीच पारस्परिक विश्वास, सहयोग की भावना और वैचारिक सामंजस्य ही होता है। परिवार से बहुत दूर वाराणसी में उत्पन्न परिस्थतियों वश अनेक बार मैं वाराणसी में रहने हेतु अन्यमनस्क भी हुआ किन्तु भाई साहब के सहज स्नेह के कारण कभी कुछ कहने का साहस नहीं कर पाया । यह उनका मेरे प्रति अटूट विश्वास ही था कि मैं इतनी लम्बी अवधि तक वाराणसी में रहकर संस्था की विकास-यात्रा में उनका सहभागी बना रहा। भाई भूपेन्द्रनाथ के सोचने और कार्य करने का ढंग एक क्रान्तिकारी जैसा ही है । परिस्थितियों से समझौता करने की अपेक्षा वे सत्य के निकट अडिग भाव से खड़े रहने में ही अधिक विश्वास करते हैं और इसलिए कभीकभी सामाजिक बुराइयों के प्रखर आलोचक के रूप में उनसे कोई समझौता नहीं कर पाते । उनका यह गुण मेरी मनोभूमिका के अतिनिकट होने के कारण हम दोनों में वैचारिक सामंजस्य बना रहा। यद्यपि हमारा यह स्वभाव संस्था की विकास-यात्रा में कहीं-कहीं बाधक प्रतीत हुआ। किन्तु मनोभूमिका का यह नैकट्य हमारी सहयात्रा में साधक ही रहा। आज वे लगभग अस्सी वर्ष की इस आयु में संस्था के विकास के लिये सजग हैं । संस्था का यह सौभाग्य है कि उसे एक सजग प्रहरी मिला है । भाईसाहब ने संस्था के लिये बहुत कुछ किया, किन्तु श्रेय हमेशा दूसरों को दिया । पद और यशकीर्ति की आकांक्षा से बहुत दूर वे संस्था के निष्काम सेवक के रूप में कार्य करते रहें हैं। *मानद निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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