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________________ ऐण्ड अन्विन, लन्दन, पृ० ४३६ ईस्टर्न बुक लिंकर्स दिल्ली, १९१२, पृ०१-२ २७. विसुद्धिमग्गो, प्रथम भाग, संपादक पं० बद्रीनाथ शुक्ल, पालि ३२. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, ले० डॉ० भागचन्द जैन 'भास्कर', ग्रन्थमाला, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, १९६१, १/३६ आलोक प्रकाशन, नागपुर, १९१२, पृ० २८१ २८. सासने कुलपुत्तानं पतिट्ठानित्य यं बिना । वही, १/२३ ३३. विसुद्धिमग्ग (खन्दनिद्देश), भाग-२, संपा० धर्मानंद कोसाम्बी, २९. चित्तैकागता लक्षणः समाधिः । बोधिचर्यावतार, प्रका० श्री महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस), १९४३, पृ० १०४-१११ परशुराम वैद्य, बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, ३४. ते झायिनो साततिका निच्चं दलदह पखकमा । १९६०, ८/४ पंजिका पर फुसन्ति धीरा निब्बांणं योगक्खेमं अनुत्तरं ।। धम्मपद, राहुल ३०. विपश्यना तथाभूतपरिज्ञानस्वभावा प्रज्ञा । वही, ८/४ सांकृत्यायन, १९३७, २/३ ३१. विपश्यना द बुद्धिस्ट वे, संपा० डॉ० हरचरण सिंह सोवटी, आचार्य हरिभद्र और उनका योग डॉ. कमल जैन आचार्य हरिभद्र एक ऐसी जीवन-दृष्टि को लेकर उदित हुये सम्बन्ध को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र ने योग को मोक्ष का हेतु जो अनुपम और अद्भुत थी । वे प्रथम मनीषी थे जिन्होंने अपनी कहा है और उन सभी साधनों को योग कहा है, जिससे आत्मा की असाधारण प्रतिभा द्वारा जैन योग को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया। विशुद्धि होती है, कर्ममल का नाश होता है और आत्मा का मोक्ष के उन्होंने परम्परा से चली आ रही प्राचीन शैली को परिस्थिति एवं साथ संयोग होता है । आचार्य के विचार में धार्मिक क्रियाकलाप, लोकरुचि के अनुरुप नया मोड़ दे करके, अभिनव परिभाषा करके जैन आध्यात्मिक भावना, समता का विकास, मनोविकारों का क्षय, मन, योग साहित्य के अभिनव युग का प्रारम्भ किया। उन्होंने जैन योग पर वचन, कार्य को संयमित करने वाले धार्मिक क्रियाकलाप ही श्रेष्ठ योग अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना की । योग सम्बन्धी अवधारणाओं को नई हैं, उन्होंने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थों में आत्मा की विशुद्धि के दिशा दी । भित्र सम्प्रदायों की संकीर्णता को दूर करने का प्रयत्न किया सभी साधनों को योग कहा है। और समन्वित साधना पद्धति को पल्लवित किया और तदनुरूप संयम उपाध्याय अमरमुनि जी ने आत्मा की अनन्तशक्ति को अनावृत व सदाचारगर्भित जीवन चर्या की प्रतिष्ठापना की। करने, आत्म-ज्योति को अलोकित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य आध्यात्मिक साधना का प्रथम लक्ष्य शारीरिक शक्तियों को तक पहुंचने के लिये मन, वचन, कर्म में एकरूपता, एकाग्रता, ऊर्ध्वगामी बनाकर मोक्ष प्राप्ति की दिशा में नियोजित करना है। योग तन्मयता एवं स्थिरता लाने वाली साधना को योग कहा है । आचार्य से ही इन सुप्त शक्तियों को जागृत किया जा सकता है । हरिभद्र ने योग की ३ अवस्थाओं का उल्लेख किया है। १. इच्छा योग - आत्मलब्धि के लिये जिसने शास्त्रीय योग की परिभाषा सिद्धान्तों का श्रवण किया है लेकिन प्रमाद के कारण विकल असम्पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के मुख्य और गौण, अन्तरंग या बहिरंग, ज्ञानपरक धर्म योग रहता है । इस अवस्था में योगी में योग साधना में आगे बढ़ने या आचारपरक, जितने आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उनका की आन्तरिक भावना तो उत्पन्न हो जाती है परन्तु प्रमाद के कारण वह यथाविधि अनुष्ठान करना और आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त कुछ कर नहीं पाता। करना ही योग है। २. शास्त्र योग - इसमें शास्त्रवेत्ता साधक ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चित वृत्ति का निरोध', पुण्यात्मक प्रवृत्ति मोक्ष से योजन चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार का शास्त्रीय विधि से पालन करने इत्यादि योग लक्षण भिन्न-भिन्न परम्पराओं में कहे गये हैं। योगियों ने लगता है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र इन तीनों के आत्मा के साथ ३. समार्थ्ययोग - साधक आत्मशक्ति के विशिष्ट विकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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