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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ७
कर्म के सम्बन्ध में परभव की आयु बाँधने का नियत समय भी की गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान कहे गये हैं उल्लिखित है। ।" इस प्रकार समवायांग तक भले ही वर्तमान चौदह गुणस्थानों का अस्तित्व आ चुका था पर वे अभी जीवस्थान नाम से जाने जाते थे । विभिन्न आध्यात्मिक विकास वाले जीवों को बँधने वाली कर्म प्रकृतियों का भी उल्लेख समवायांग में मिलता है- सूक्ष्मसम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसम्पराय भगवान् केवल सत्रह कर्म प्रकृतियों को बाँधते है । ९६ संक्लिष्ट परिणाम वाले अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय) जीव नाम कर्म की २५ उत्तर प्रकृतियों को बाँधते हैं।" देवगति, नरकगति को बाँधने वाले जीव द्वारा २८ कर्म प्रकृतियों को बाँधने का भी निर्देश है। इसी क्रम में प्रशस्त अध्यवसाय से | युक्त सम्यग्दृष्टि भव्य जीव द्वारा तीर्थकर नाम कर्म के अतिरिक्त नाम कर्म की २८ कर्म प्रकृतियों को बाँधकर नियमपूर्वक वैमानिक देवों में उत्पन्न होने का उल्लेख हैं । ९९ समवायांग में आठों मूल प्रकृतियों की अवान्तर प्रकृतियों में से कुछ को समाविष्ट कर और कुछ को छोड़कर उनका योग बताया गया है। यद्यपि इसका कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से विशेष महत्त्व नहीं हैं। इन पर दृष्टिपात करने से इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि नाम कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म-प्रकृतियों की संख्या नियत हो चुकी थी।
समवायांग
यह सामान्य अवधारणा है कि समवायांग एक संग्रह ग्रन्थ है। इसे ग्रन्थ-बद्ध करते समय उस काल पर्यन्त विद्यमान जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक अवधारणाओं को इसमें संगृहीत कर लिया गया है। इसमें कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेखों का अवलोकन करने से भी इसी अवधारणा की पुष्टि होती है। समवायांग में कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी जो उल्लेख मिलते हैं संक्षेप में उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है उत्तर प्रकृतियों की संख्या, विभिन्न कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की संख्या का अलग-अलग योग, कर्मबन्ध के कारण, मोहनीय कर्म के बन्ध के ३० कारण, मोहनीय कर्म के ५२ नाम और विभिन्न आध्यात्मिक जीवों की दृष्टि से अवान्तर कर्म प्रकृतियों की सत्ता और बन्ध का निर्देश । उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त भी जैन कर्म सिद्धान्त के यत्र-तत्र कुछ बिखरे हुए सूत्र मिलते हैं जिनका विवेचन आगे किया जा रहा है।
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समवायांग के आरम्भ में बन्धन के दो प्रकारों - राग और द्वेष का पाँच कारणों मिध्यात्व अविरति प्रमाद, कषाय और योग का उल्लेख है जिसकी चर्चा ऋषिभाषित और स्थानांग में आ चुकी है। दर्शनावरणीय की ९, मोहनीय कर्म की २८ और नाम कर्म की ४२ अवान्तर प्रकृतियों का नाम निर्देश इसमें मिलता है। सम्भवतः समवायांग में अन्तिम दो के नाम पहली बार निर्दिष्ट हैं। जहाँ तक दर्शनावरणीय कर्म की अवान्तर प्रकृतियों के नाम-निर्देश पूर्वक उल्लेख का सम्बन्ध है इससे पूर्व उत्तराध्ययन और स्थानांग में ये आ चुकी हैं। नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों की संख्या की दृष्टि से इसका विकास होता रहा क्योंकि आगे चलकर नाम कर्म की अवान्तर प्रकृतियों की संख्या क्रमशः ६७,९३, और १०३ तक प्राप्त होती है। मोहनीय कर्म के ५२ नामों का भी उल्लेख है जिसमें क्रोध कषाय के १०, मानकषाय के ११, माया कषाय के १७ और लोभ कषाय के १४ नाम सम्मिलित हैं । समवायांग में विभिन्न जीवों की दृष्टि से अवान्तर कर्म प्रकृतियों की सत्ता का भी निर्देश चार स्थलों पर आया है । २१ वें समवाय में उल्लेख है कि दर्शनमोहत्रिक को क्षय करने वाले निवृत्तिबादर को मोहनीय कर्म की २१ अवान्तर प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।११२६ वें समवाय में अभव्यसिद्धिक जीवों को मोहनीय कर्म के २६ कर्माश प्रकृतियों की सत्ता रहती हैं। २७यें समवाय में वेदक सम्यक्तव के बन्ध रहित जीव को मोहनीय कर्म की २७ प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। इसी प्रकार २८वे समवाय में यह उल्लिखित है कि कितने भव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है 12
यद्यपि समवायांग में गुणस्थान पद नहीं आया है परन्तु चौदह जीवस्थान कहकर चौदह गुणस्थान गिना दिये गये हैं। कर्मों की विशुद्धि
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इसके अतिरिक्त मोहनीय कर्म के बन्ध और स्थिति से सम्बन्धित कुछ प्रकीर्ण सूचनायें मिलती हैं। समायांग में मोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारण गिनाये गये हैं१०१ जिनका निर्देश उत्तराध्ययन ०२, आवश्यकसूत्र १३ और दशाश्रुतस्कन्ध १९४ में भी मिलता है । छेदसूत्र दशाश्रुत स्कन्ध के नवें अध्याय (दशा) में इनका विस्तार से उल्लेख हैं। समवायांग की प्रस्तावना में श्री मधुकर मुनि ने बताया है कि टीकाकारों के अनुसार मोहनीय शब्द से सामान्य रूप से आठों कर्म और विशेष रूप से मोहनीय कर्म ग्रहण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म के इंगित कारणों को सामान्य कर्म-बन्ध के कारणों के रूप में भी लिया जा सकता हैं ।
इस प्रकार हम देखते है कि समवायांग में अवान्तर प्रकृतियों की दृष्टि से नाम कर्म की ४२ उत्तर प्रकृतियों का नाम सहित निर्देश होना, मोहनीय कर्म के ५२ नाम, मोहनीय कर्म बन्ध के ३० कारण, जीवस्थानों (गुणस्थानों) की दृष्टि से जीवों को बँधने वाली कर्मप्रकृतियों की सूचना ये कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से महत्तवपूर्ण है और कर्म सिद्धान्त के विकासक्रम को द्योतित करती है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. पं. दलसुख भाई मालवणिया, 'आत्ममीमांसा' जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस ५ १९५३, पृ० ९५
२.
३.
से. डॉ. तुलसी राम शर्मा ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, १९७६.१२/२ डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र जैन कर्म सिद्धान्त उद्भव एवं विकास,
६५, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५, १९९३, पृ० ६-१८
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