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________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम वर्गीकरणों की संख्या में परिवर्तन हुआ है। आगमों के ग्रन्थबद्ध होने और योग का एक साथ भी निर्देश कर दिया गया है। परन्तु इससे के पूर्व मूलप्रकृतियों के इस प्रकार वर्गीकरण के पीछे सम्भवतः स्मरण पूर्ववर्ती ऋषिभाषित में इन पाँच कारणों का उल्लेख प्राप्त होता है अत: सुविधा की दृष्टि मुख्य रही होगी। कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से इसमें उल्लेख होना विशेष अवान्तर प्रकृतियों का जो उल्लेख स्थानांग के अलग-अलग महत्त्वपूर्ण नहीं है। स्थानों में प्राप्त होता है उसमे ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, इसमें किन-किन कारणों से मुनष्य अल्पायुष्यकर्म, दीर्धवेदनीय की दो और गोत्रकर्म की दो अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख आयुष्यकर्म का बन्ध करता है इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है।७४ प्रचलित परम्परा के ही अनुरूप है, परन्तु उसमें नोकषाय वेदनीय कर्म यही नहीं स्थानांग में नारक, तियँच, मनुष्य और देवायु बाँधने के कारणों के जो ९ भेद बताये गये हैं वे परम्परागत वर्गीकरण में नोकषाय मोहनीय पर भी विचार किया गया है.५ जो कर्म-सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से कर्म के ९ भेद माने जाते हैं । यद्यपि इनके नाम आदि में समरूपता है महत्त्वपूर्ण है। नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों किन्तु इन्हें नोकषाय वेदनीय कर्म क्यों कहा गया है, यह विचारणीय है। को जीवों द्वारा छ: प्रकार का आयुबन्ध बताया गया है । ६ परभविक स्थानांग में दस की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन करने के कारण आयुर्बन्ध के प्रसंग में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के सभी जीवों के मोहनीय कर्म की २८ और नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख भुज्यमान आय के छ: मास के अवशिष्ट रहने पर नियम से परभव की स्थानांग में न होना स्वाभाविक प्रतीत होता है परन्तु अन्तराय कर्म की आयु का बन्ध करते हैं. यह उल्लेख है। स्थानांग की यह अवधारणा ५ अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख न होना विचारणीय है। यहाँ यह दिगम्बर मान्यता के विपरीत है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उत्तराध्ययन के ३३वें और तियँच वर्तमान भव की आय के नौ माह शेष रहने पर परभव की अध्ययन में अन्तराय की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्ययाँ ये ५ आयु का बन्ध करते है।८ अवान्तर प्रकृति नाम सहित निर्दिष्ट हैं इससे यह निष्कर्ष निकाला जा जीवों को सदा प्रतिक्षण मोहनीय कर्म का बन्धन होने का सकता है कि उत्तराध्ययन का सह अध्ययन स्थानांग का उत्तरवर्ती है और उल्लेख है । ९ मोहनीय कर्म के उदय से उन्माद, प्रमाद, तथा मैथुन साथ ही उत्तर प्रकृतियों की संख्या में क्रमिक विकास हुआ है। संज्ञा उत्पन्न होने का निर्देश है ।८२ लोभ वेदनीय कर्म के उदय से परिग्रह कर्म के प्रदेश और अनुभाव दो प्रकार बताये गये हैं।६५ हिंसा संज्ञा होने का उल्लेख है ।। आदि दुष्टकर्मों को दुश्चीर्ण कर्म (दुच्चिण्ण), तप आदि कर्मों को सुचीर्ण स्थानांग में कर्म की अवस्थाओं में उपचय, बन्ध, उदीरणा, (सुचिण्ण)६६ कहा गया है यद्यपि इनका सैद्धान्तिक दृष्टि से विशेष वेदना और निर्जरा का उल्लेख है । एक स्थल पर जीवों द्वारा आठ महत्व नहीं है क्योंकि इनका अर्थ क्रमश: दुष्टकर्म या पापकर्म और कर्म प्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन और निर्जरण पुण्यकर्म है और कर्मों के पुण्य और पाप होने की अवधारणा आचारांग का उल्लेख है। सूत्रकृतांग में चर्चित उदय और बन्ध की अपेक्षा कर्म में आ चुकी थी । स्थानांग में कर्म के शुभत्व-अशुभत्व पर भी सम्यक् की अवस्थाओं की दृष्टि से अतिरिक्त सूचना भी मिलती है । परन्तु विचार किया गया है। इसे प्रकृति और बन्ध के चार भंगों के माध्यम स्थानांग सहित पूर्ववर्ती सभी ग्रन्थों में कर्म की दसों अवस्थाओं का से व्यक्त किया गया है - १.शुभ और शुभ २.शुभ और अशुभ ३.अशुभ अभाव यह इंगित करता है कि इनका विकास क्रमशः हुआ है और और शुभ ४.अशुभ और अशुभ । भंगों में प्रयुक्त प्रथमपद प्रकृति और स्थानांग के काल तक दसों अवस्थाओं की अवधारणा नहीं बनी थी। द्वितीय पद अनुबन्ध के लिए है । इसी प्रकार प्रकृति और विपाक की - स्थानांग में कर्म-प्रकृतियों के वेदन और क्षय का आध्यात्मिक दृष्टि से चार भंगों में कर्म का शुभत्व और अशुभत्व बताया गया है ।६८ दृष्टि से भी विचार किया गया है । यद्यपि इस दृष्टि से कुछ बिखरे हुए क्रिया स्थानों के सम्बन्ध में कर्म के ईर्यापथिक और सम्परायिक कर्म का सूत्र ही प्राप्त होते हैं - क्षीणमोह वाले अर्हन्त के तीन सत्कर्म एक साथ भी उल्लेख एक साथ आया है।६९ यद्यपि सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध नष्ट होते हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय।५ प्रथम में ईर्यापथिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक कर्म की चर्चा है समयवर्ती केवली जिन के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोह और परन्तु सूत्रकृतांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से बाद का आन्तरायिक ये चार कर्म क्षीण हो चुके होते हैं।६ प्रथम समयवर्ती सिद्ध माना जाता है। अत: यदि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थानांग के चार सत्कर्म एक साथ क्षीण होते हैं - वेदनीय, आयु, नाम और से परवर्ती माना जाय तो स्थानांग का यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण माना जा गोत्र ।८७ सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म की अवान्तर प्रकृतियों के स्थानांग में कर्मबन्ध के चार प्रकारों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग पूर्ण व्यवस्थापन से पूर्व की स्थिति का ज्ञान स्थानांग से होता हैं । इसमें और प्रदेश का तथा बन्ध के दो प्रकारों-प्रेय और द्वेष बन्ध का उल्लेख कर्मबन्ध, उनके कारणों आदि के सम्बन्ध में सूक्ष्मता से विचार की है। चारकषाय २ और प्रमाद का अलग-अलग निर्देश होने के साथ- प्रकिया आरम्भ हो चुकी थी । कर्म की अवस्थाओं के सम्बन्ध में भी साथ आस्रव के ५ कारणों के रूप में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय पूर्ववर्ती ग्रन्थों की अपेक्षा विकास परिलक्षित होता है। साथ ही आयुष्य Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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