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जैनधर्म और गुजरात
१८५ क्षात्रधर्म शिथिल हए और फलस्वरूप आम प्रजा पौरुषहीन होकर संरक्षण करने के लिए जैनों ने बड़े-बड़े क्षत्रिय वीरों से भी बढ़कर पराधीन बन गई इत्यादि।
उत्साह दिखलाया था। गुजरात के साम्राज्य के उत्कर्ष के लिए अहिंसा के विषय में उक्त आक्षेप सर्वथा भ्रमात्मक और जैनधर्मी वीर योद्धाओं ने अनेक रणसंग्राम खेले हैं और अद्भुत युद्ध तत्वशन्य है। मैंने जैसे प्रथम सूचित किया है उस रीति से जैनधर्म की कौशल बताया है। गुजराती भूमि में कभी-कभी तो जो दुर्धर्ष कार्य अहिंसा की कल्पना और व्याख्या बहुत विशाल और गम्भीर है। उक्त क्षत्रिय पुत्र भी न कर सके वह इन तथाकथित वणिक पुत्रों ने करके व्याख्या के अनुसार दृश्य तथाकथित अहिंसा वस्तुत: हिंसा हो दिखाया है। सकती है और स्थूल दृष्टि से दृश्य हिंसा भी सिद्धान्तसम्मान अहिंसा आबू के जगत्प्रसिद्ध कलाधाम आदिनाथ मन्दिर का निर्माता हो सकती है। हिंसा-अहिंसा की सिद्धि और साधना का आधार न विमलशाह जैन ऐसा प्रचंड-सेनानायक हो गया है जिसने गुजरात के सिर्फ बाह्य प्रवृत्ति ही नहीं है किन्तु बाह्यप्रवृत्ति में रहे हुए हेतु की सैन्यों को सिन्धु नदी के नीर में तैरा करके गजनी की सीमा को शुद्धि-अशुद्धि के कारण होने वाली आन्तरिक वृत्ति है। जैन या अन्य पददलित करने वाला बना दिया। मंत्री उदयन के पुत्र दण्डनायक कोई जिसे अहिंसा समझते हों और अपनी जिस प्रवृत्ति को अहिंसा आंबड ने गूर्जर सैन्यों को सह्याद्रि की घटियाँ किस प्रकार पादाक्रान्त की पोषक मानते हों वह भी इस तत्व दृष्टि के अनुसार वस्तुतः करना यह अनुभव पाठ सैन्यों के साथ रहकर के दिया और अपने अहिंसा हो भी सकती है या नहीं भी हो सकती। तत्वत: अहिंसक सम्राट की शत्रु विजिगीषा किस प्रकार पूर्ण करना इसकी सोपपत्तिक व्यक्ति अहिंसा धर्म के पालने के निमित्त किसी समय चींटी जैसे शिक्षा देने के लिये मल्लिकार्जुन जैसे बलवान् कोंकणाधीश नृपति क्षुद्रतम जन्तु के प्राण बचाने के लिए भी अपने प्राणों का परित्याग का स्वहस्त से कण्ठकर्तन करके मस्तक रूप श्रीफल के द्वारा गर्जर कर सकता है जबकि दूसरे किसी अवसर में अपनी अहिंसा पालन के नरेन्द्र की चरण पूजा करके दिखलाई। गुजराती योद्धाओं को विन्ध्याचल ही निमित्त से चक्रवर्तियों के महासैन्यों का भी संहार स्वयं कर सकता की अटवी कैसे पददलित करना और उसमें यथेच्छ विहरने वाले है और करा भी सकता है। इस प्रकार अहिंसा धर्म 'कुसुमादपि गजयूथों को किस प्रकार शिक्षा देकर के अणहिलपुर की हस्तिशालाओं कोमल' ओर 'वज्रादपि कठोर' है। उसका शुद्ध आचरण तलवार की को अजेय बना देना इस बात की अपूर्व विद्या मंत्री लहर ने दी थी। धार पर चलने जैसा कठिन कार्य है। सर्वस्व के त्याग की तैयारी के धनुर्विद्या में प्रवीण उसी दण्डनायक ने अणहिलपुर के सन्निकट बिना इस अहिंसा धर्म का सम्पूर्ण पालन शक्य नहीं है और न राग- विन्ध्यवासिनी देवी का बड़ा पीठ स्थापित करके उसके प्रांगण में द्वेष के विषय के बिना अहिंसा की सिद्धि हो सकती है। आधुनिकान गुर्जर सैनिकों को प्रजाजनों को धनुर्विद्या के शौर्यपूर्ण पाठ पढ़नेसमाज इस अहिंसा की सम्पूर्ण साधना करता है ऐसा मेरा मन्तव्य या पढ़ाने के लिये पाठशाला खड़ी की थी। वक्तव्य नहीं है किन्तु मैं तो बताना यह चाहता हूँ कि अहिंसा की उदयन मन्त्री ने सोरठ के ऊपर धावा बोल कर राखेंगार का नि:शंक व्याख्या क्या है। देश काल की परिस्थिति का विवेकपूर्वक राज्य नष्ट किया और सिद्धराज को चक्रवर्ती पद दिलाया। मन्त्री विचार किये बिना, मूढभाव से यदि कोई समाज अहिंसा की अन्य वस्तुपाल ने गुजरात के स्वराज्य को नष्ट होने से बचाने के लिए प्रवृत्ति करता हो तो वह वास्तविक अहिंसा नहीं हो सकती। उस अपनी जिन्दगी में त्रेसठ बार युद्धभूमि में गूर्जर सेना का संचालन प्रवृत्ति का परिणाम यदि बहुजन समाज के लिये हानिकर होता हो तो किया था। उसके युद्धकौशल के प्रताप से दिल्ली के इस्लामी सैन्यों वह निरी हिंसा ही है। अतः ऐसी अन्ध प्रवृत्ति अवश्य दोष और को भी गुजरात की सीमा में पराजय प्राप्त हुआ था। भीमदेव द्वितीय तिरस्कार की पात्र होती है।
जब नाबालिग था तब उसका एक सज्जन नामक जैन सेनानायक था
जो नियमत: सायं-प्रातः प्रतिक्रमण करता था। जब युद्ध प्रसंग होता जैन सेनापतियों का पराक्रम
तो वह हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे घड़ी भर एकाग्रचित्त होकर अपने किन्तु अहिंसा की ऐसी रूढ़ या अन्ध प्रवृत्ति के साथ भी अहिंसा धर्म के आध्यात्मिक नियम का पालन कर लेता और शेष प्रजा की पराधीनता का तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। अहिंसा के नाम समय में शत्रु संहार की रणभेरी पूँक अपने प्रजाकीय राष्ट्रीय धर्म का को जिन्होंने स्वप्न में भी नहीं सुना ऐसे अनेक प्रजा वर्ग जगत् के पालन करता था। उसी के सेनापतित्व में आबू की तलहटी में इतिहास में पराधीन हुए हैं और होते रहे हैं। अहिंसा की इस तात्विक शहाबुद्दीन जैसे महान् सुल्तान को. भी पराजित होना पड़ा थाविचारणा को छोड़कर यदि उसे हम व्यावहारिक दृष्टि से सोचें तो इसे मुसलमान तवारीखों में माना भी गया है। पता लगेगा कि जैनों ने अहिंसा का ऐसा अनर्थ तो कभी नहीं किया गुजरात के इतिहास में ऐसे अनेक वृत्तान्त मिलते हैं जिनके जिससे प्रजा की शौर्यवृत्ति नष्ट हो गई हो! उल्टा जैन समाज और अनुसार जैनधर्म के समर्थ उपासक वणिकों ने क्षत्रियों के जैसा ही गुजरात का इतिहास तो इस बात का साक्षी है कि अपने देश का रणशौर्य दिखलाया है और शत्रुओं के संहार द्वारा अपने राष्ट्रधर्म के
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