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________________ जैन धर्म में अनीश्वरवादः एक विश्लेषण डॉ. डी. आर. भण्डारी, विश्व के अनेक धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं। जैन दर्शन का अनीश्वरवादःको सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान, अनन्त. सर्वज्ञ पर्ण आदि जैन दर्शन ने आत्मा से अलग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं मानते हैं। ईश्वर सत्, शुभ, न्यायपरायण, दयालु, कल्याणकारी एवं किया है। जैन दर्शन ने आत्मा को ही सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान, (अनंत परम-आध्यात्मिक सत्ता है। यह सर्वश्रेष्ठ मूल्य और सर्वश्रेष्ठ साध्य है। वीर्य से युक्त) माना गया है । आत्मा अनंत ज्ञान प्रकाश से परिपूर्ण है, यही सब आदर्शों का आधार है। पाश्चात्य दर्शन में प्लेटो ने 'शुभ के अतः आत्मा अपने मूल रूप में शुद्ध है । चेतन और परमचेतन दो प्रत्यय' को ईश्वर माना है। अरस्तू ने उसे 'आदि संचालक, स्पिनोजा ने विभिन्न अवस्थाएँ नहीं हैं। 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् जो आत्मा है वही उसे 'वस्तुओं का सार्वभौम सिद्धान्त', लाइबनित्ज ने उसे 'चिद्-बिन्दु- परमात्मा है, यही जैन धर्म का मूल उद्घोष है अपने मूल स्वरूप में सम्राट', बर्कले ने उसे 'महाप्रयोजन' के रूप में तथा हेगेल ने उसे आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार एवं निरंजन है । वह सांसारिक कर्म भूमि 'निरपेक्ष चैतन्य' के रूप में मान्यता दी है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में 'कर्मों के आवरण में बंधनों में बंध जाती है, परन्तु संवर एवं निर्जरा में ऋग्वेद में एक अदृश्य सत्ता के रूप में ईश्वर का चिन्तन आरम्भ की साधना से पुन: पूर्णत: निर्मल होकर सर्वज्ञ बनने का पुरूषार्थ आत्मा हआ। वैदिक परम्परा के ऋषि अदृश्य शक्तियों को दिव्य रूप में में है। अत: मनुष्य स्वयं परमात्मत्व प्राप्त कर सकता है । अत: ईश्वर स्वीकार कर स्तुति करने लगे। इस प्रकार प्रारम्भिक बहुदेववाद के जैसी किसी अन्य सत्ता को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। साथ-साथ एकेश्वरवाद भी सहज रूप में अस्तित्व में आ गया। ईश्वरवाद अपनी अनिश्वरवादी धारणा को पष्ट करने हेत जैन धर्म बहत की यह अवधारणा उपनिषद् काल में पल्लवित हुई, साथ ही श्रमण से तर्क देता है। उनका कथन है कि जो धर्म या दर्शन ईश्वर को स्वीकार विचारधारा से भी प्रभावित हुई इस संगम में आध्यात्मिकता का समावेश करके उसे सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता मानते हैं साथ ही ईश्वर हुआ फलस्वरूप प्राकृतिक तत्त्वों के चिन्तन के साथ आत्मतत्व का को अजन्मा, शाश्वत, निरंजन, निराकार मानते हैं तो उनकी इन मान्यताओं अनुचिन्तन भी प्रारम्भ हुआ ज्ञानपक्ष महत्वपूर्ण बनता गया । इस में कई अन्तर्विरोध खड़े हो जाते हैं जैसे कि - जो अशरीर वाला है वह वैचारिक परिवर्तन द्वारा वेदकालीन बहुदेववाद के स्थान पर एक कर्ता कैसे हो सकता है एवं यदि ईश्वर कर्ता है तो उसका कर्ता कौन सर्वशक्तिमान, अनंत, नित्य, अनिर्वचनीय ईश्वर के नाम से अभिहित हुई है? अगर सृष्टि का निर्माण एवं विनाश करने वाले अलग-अलग ईश्वर यही सत्ता की स्थापना हुई। हैं तो उनके बीच सामंजस्य करने वाला तत्व कौन है, क्या है ? यदि भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में चार्वाक,बौद्ध एवं जैन दर्शन ईश्वर निरंजन, निराकार एवं सर्वव्यापी है तो उसे हाथ-पैर, आदि अंगों, में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है, अत: तीनों दर्शन मस्तिक वाला कैसे मान लिया गया ? ईश्वर की सत्ता के कारण कोई 'अनीश्वरवादी' हैं। शेष अन्य दाशनिक परम्पराओं में ईश्वर की सत्ता को मानव ज्ञान या भक्ति के आधार पर केवल ज्ञानी या भक्त बन सकता है, स्वीकार किया है अत: वे ईश्वरवादी दर्शन माने गए हैं । ईश्वरवादी ईश्वर के निकट पहुँच सकता है परन्तु इर्श्वर नहीं हो सकता है, ऐसा दाशनिक परम्पराओं में ईश्वर को विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता एवं क्यों ? जैन धर्म के अनुसार ईश्वरवाद को स्वीकार करने पर हमारे समक्ष संहारकर्ता के रूप में माना गया है। इनमें ईश्वर की परिकल्पना उपरोक्त प्रश्न खड़े हो जाते हैं जिनका संतोषप्रद उत्तर मिल पाना सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनंत, नित्य, स्वंयभू के रूप में की गई है। असम्भव है। इसलिए उन्हें ईश्वर की धारणा स्वीकार्य नहीं है । अपने ईश्वर सर्वोपरि सत्ता, जीवात्मा से विलक्षण, एकमात्र एवं सर्वप्रभुत्व सत्ता अनिश्वरवाद के पक्ष में जैन धर्म ने कुछ तर्क प्रस्तुत किए हैं जो कि निम्न सम्पन्न है । वह जैसा चाहता है वैसा ही होता है । उसके निर्देश के है। अभाव में पत्ता भी नहीं हिल सकता। असम्भव को सम्भव एवं सम्भव को असम्भव करने की शक्ति उसी में केन्द्रित है । सारे कर्मों का कर्ता ईश्वर कर्ता नहीं हो सकता : . ईश्वर है तथा वही कर्मों का फलदाता भी है जिसे जीवात्मा को वहन जैन धर्म की मान्यता है कि जड़ और चेतन तत्त्व अनादि व करना होता है। ईश्वर अनादि मुक्त है, शिष्टानुग्रह तथा दुष्टोनिग्रह के लिए अनंत है तथा यह विराट विश्व मूलत: इन दो तत्वों का विस्तार है। यह उसे बार-बार अवतार लेना पड़ता है। सत् है अत: न तो इसका निर्माण संभव है और न विनाश । अत: इस दृष्टि से कर्ता या संहारक रूप में ईश्वर की सत्ता मान्य नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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