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________________ १०० जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ सकती। साथ ही अनुमान द्वारा भी यह प्रमाणित करना सम्भव नहीं है हैं। यदि यह सत्य है तो ईश्वर का निरंजन-निराकार स्वरूप कैसे मान्य कि ईश्वर ने धरती और आकाश बनाया । अशरीरी ईश्वर कर्ता नहीं हो हो सकता है । यदि वह जादूगर है, मनचाहे अनेक रूप बनाने वाला है सकता। यही सृष्टि का नियम है। साथ ही किसी भी मूल तत्त्व का तो उसका मुक्त-सिद्ध-बुद्ध आत्मा का परिचायक होना मान्य नहीं हो उत्पाद और विनाश संभव नहीं है : जो सम्भव है वह है केवल परिणमन सकता, जिसके लिए मुमुक्ष या साधक भक्ति के लिए लालायित रहे। एवं रूपान्तरण मात्र । साथ निरपेक्ष सर्वत्र माने जाने वाले ईश्वर को सृष्टि की रचना या निर्माण के प्रपंच में पड़ने की क्या आवश्यकता है बनाना ईश्वर का अजन्मा एवं अपुरूषार्थी रूप मान्य नहीं : और मिटाना तो अबोध बालकों का धर्म या स्वभाव है । जैन-धर्माचार्यों ईश्वरवादियों की यह मान्यता कि 'परमात्मा भूत काल में भी का कहना है कि दयामय प्रभु पहले तो चोर,डाकू, हत्यारे आदि पापी था-वर्तमान में भी है- एवं भविष्यकाल में भी रहेगा'ईश्वर का यह लोगों का निर्माण करता है फिर उन्हें दण्ड देता है, नर्क में भेजता है, देशकालातित रूप अजन्मा रूप है । जैन धर्म एवं दर्शन को बिना किसी यह एक को शोभा नहीं देता । इस प्रकार जैन धर्म में ईश्वर की सत्ता कर्ता पुरूषार्थ के ईश्वर के अस्तित्व की स्वत: स्वरूप धारणा कतई मान्य नहीं के रूप में मान्य नहीं है। है । उन्हें जो मान्य है वह है माँ के गर्भ से पैदा होना एवं पुरूषार्थ से ईश्वर बनना । जैन धर्म की यह दृढ़ मान्यता है कि ज्ञान-दर्शन-चरित्र-तप ईश्वर की सर्वशक्तिमान धारणा मान्य नहीं : की सतत् साधना के बिना कोई परमात्मा नहीं बन सकता अर्थात पुरूषार्थी जैन धर्म का यह कथन है कि यदि ईश्वर सर्वशक्ति सम्पन्न है मानव ही अपनी सतत् साधना से परमात्मा बन जाता है। बिना पुरूषार्थ तो वह कुछ भी कर सकता है, वह दूसरा ईश्वर भी बना सकता है । यदि के संसार की उपादेयता ही नहीं रह जाती अत: जैन धर्म को अपुरूषार्थी ईश्वर में दूसरा ईश्वर बना सकने की शक्ति नहीं है तो वह सर्वशक्ति सम्पन्न ईश्वर मान्य नहीं है। नहीं है। इस प्रकार जैन धर्म में अलग से ईश्वर की मान्यता स्वीकार नहीं की गई है । उनके अनुसार आत्मा ही परमात्मा बन सकती है। स्वरूप दर्शन एवं विद्यमानता भी अमान्यः तीर्थकर महावीर ने आत्मा पर स्वयं परमात्मा बनने का दायित्व डाला भगवद् गीता एवं अन्य ईश्वरवादी ग्रन्थों में ईश्वर को सर्वज्ञ जो कि ज्ञान, चरित्र, दर्शन, तप एवं आराधना द्वारा ही सम्भव है। उन्होंने हाथ-पैर , आँख-कान, मस्तक व मुँह वाला कहा हैं । शुक्लयजुर्वेद मानव जाति को परमात्म पद प्राप्त करने की स्वतंत्रता प्रदान की एवं में बताया गया है कि ईश्वर सब ओर आँखों वाला, सब ओर मुख वाला, उसे परमात्मा बनने के लिए प्रेरित किया। सब ओर हाथ वाला एवं सब ओर पैर वाला है एवं सारी सृष्टि में व्याप्त Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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