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________________ आधत्मिक यज्ञः एक अनुचिन्तन चाहिए। इसके उपकरण कौन-कौन हैं। इस विषय में उत्तराध्ययन में रूपकाश्रित बहुत सुन्दर वर्णन है । जैसे— वैदिक द्रव्ययज्ञ के उपकरण (१) अग्नि (२) अग्निकुंड (जहाँ अग्नि प्रज्वलित की जाती है) (३) खुवा (जिससे घृत की आहुति दी जाती है) (४) करीषाद (जिससे अग्नि प्रज्वलित की जाती है। जैसे मधु, घृत आदि) (५) समिधा (एधा- शमी पलाशादि की लकड़ियाँ) (६) शान्ति पान ( कष्टों को दूर करने पाङ्ग के लिए) (७) लबन या होम (जिससे अग्नि प्रसन्न हो) (८) जलाशय (स्नान के लिए) (९) शान्ति तीर्थ (सोपान) (१०) जल कैसा हो ? - (जिससे कर्म रज दूर हो।) (११) निर्मलता इस तरह इस भावयज्ञ करने वाला याजक तपरूप अग्नि को जीवात्मा रूपी अग्निकुंड में, शरीररूपी करीषाद से प्रज्वलित करके कर्मरूपी ईंधन (समिधा आदि) का तीन योगरूपी खुवा (आहुति देने का पात्र) से हवन करे। संयम व्यापाररूपी शान्ति पाठ को पढ़े तथा शुक्ललेश्या की तरह निर्मल आत्मा रूपी जल से युक्त ब्रह्मचर्यरूपी शान्तितीर्थ में स्नान करे ४९ । इस तरह अध्यात्म यज्ञ करने वाला जब अध्यात्म - जलाशय में स्नान करता है तब वह अत्यन्त शीतल और निर्मल होकर कर्मरजरूपी मलों को धो देता है। यह स्नान ऋषियों द्वारा प्रशस्त है। जो इसमें स्नान करता है वह उत्तमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता ५१ नन्दमानव पुच्छा (सुत्तनिपात) में भगवान् बुद्ध और नन्द ब्राह्मण का संवाद है जिसमें भगवान् बुद्ध ने बताया है कि जो कोई श्रमण या ब्राह्मण यज्ञ और श्रुत से शुद्धि चाहते हैं वे जन्म-जरा से निवृत्त नहीं होते हैं अपितु तृष्णा के त्याग और अनास्रव से युक्त मनुष्य संसार के जरामरण से तर जाते हैं। अर्थात् प्रज्ञा, शील और समाधि का जो यज्ञानुष्ठान करता है वह संसार के दुःखों से निवृत्त हो जाता है। उन्होंने सुत्तनिपात में कहा है- हे ब्राह्मण! लकड़ी जलाने Jain Education International भावयज्ञ के उपकरण (१) तप (ज्योतिरूप) क्योंकि तप में अग्नि की तरह कर्ममल भस्म करने की शक्ति है। जीवात्मा (तपरूप अग्नि का स्थान ) मन, वचन, कायरूप योग खुवा (चम्मच) है क्योंकि शुभाशुभ कर्मेन्धनों का आगमन इन्हीं के द्वारा होता है (४) शरीर क्योंकि तपरूपाग्नि इसी से प्रदीप्त होती है। (२) (३) (५) शुभाशुभकर्म क्योंकि तप रूप अग्नि में लकड़ी की तरह भस्म हो जाते हैं। (६) संयम व्यापार क्योंकि इससे सब जीवों को शान्ति मिलती है। (७) (८) (९) चारित्ररूप भाव यज्ञानुष्ठान- इससे अग्नि को प्रसन्न करते हैं। अहिंसा धर्मरूप जलाशय ब्रह्मचर्य और शान्ति (१०) कलुष भावरहित प्रसन्न लेश्या वाली आत्मा । अर्थात् उपरोक्त गुणरूपी तीर्थजल में स्नान करने से कर्मरज दूर जो जाती है। (११) बाह्य स्नान की तरह अन्तरङ्ग आत्मा निर्मल और ताजी हो जाती है। ३१ को शुद्धि मत समझो क्योंकि यह सिर्फ बाह्य उपचार है। इसे कुशल लोग शुद्धि नहीं मानते हैं अतः तेरा यह अभिमान खरिया का भार (खारिभार) है, क्रोध धूम है, मिथ्या वचन भस्म है, रसना (जिह्वा) खुवा है, और हृदय ज्योति है।' अतः हे ब्राह्मण कुशलों से प्रशंसित, निर्मल धर्म के तालाब में जिसमें शील तीर्थ (घाट) हैं, उसमें नहाने से वेदज्ञ बिना भींगे हुए पार उतर जाते हैं। इस परम स्थानकी प्राप्ति सत्य, धर्म, संयम और ब्रह्मचर्य पर निर्भर है। अत: तू ऐसी हवन क्रियाओं को नमस्कार कर जिसे मैं (भगवान् बुद्ध) पुरुषदम्य सारथी (पुरूषों को विनम्र बनाने में सारथी रूप मानता हूँ। इसी तरह महर्षि ल्यास ऋषि ने भी कहा है-ज्ञानरूपी जादर से ढके हुए, ब्रह्मचर्य और क्षमारूपी जल से पूर्ण, पापरूपी कीचड़ को नष्ट करने वाले अत्यन्त निर्मल तीर्थ में स्नान करके जीवकुंडमें दमरूपी पवन से उद्दीपित, ध्यानरूपी अग्नि में अशुभ कर्मरूपी काष्ठ की आहुति देकर उत्तम अग्निहोत्र यज्ञ को करो काम और अर्थ को नष्ट करने वाले शमरूपी मन्त्रों से दुष्टकषायरूपी पशुओं का यज्ञ करो जो मूढ प्राणी मूक प्राणियों का वध करके धर्म की कामना करते हैं वे लोग काले सर्प की खोल में अमृत की वर्षा चाहते है५२ रा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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