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________________ ३० पाने का अधिकारी हूँ। यह प्रथम प्रश्न का उत्तर है। (२) यज्ञों का मुख —- यज्ञार्थी (संयमरूपी यज्ञ करने वाला साधु) है। जिस यज्ञ से कर्मों का क्षय हो वही यज्ञों का मुख है। अथवा जो पापबन्ध में कारण न हो वहीं यज्ञों का मुख है और ऐसा यज्ञ है भावयज्ञ या यमयज्ञ । हिंसा प्रधान वैदिक यज्ञ कर्मक्षय में कारण नहीं है अपितु कर्मबन्ध में ही कारण है३८ । अतः बृहदारण्यक उपनिषद् में पूछा है - 'किमहं तेन कुर्यां येनाहं नामृता स्याम ।' यहाँ पर अग्निहोत्र यज्ञ में जीवरूपी कुंड, तपरूपी वेदिका, कर्मरूपी इन्धन, ध्यानरूपी अग्नि, शुभोपयोगरूपी कडछुली, शरीररूपी होता (यज्ञकर्ता) तथा शुद्धभावनारूपी आहुति बतलाई है। जिन शास्त्रों में ऐसे यज्ञों का विधान है उन्हें वेद कहते हैं और जो ऐसे यज्ञों को करता है वही सर्वोत्तम याजक है। इस उत्तर से मुनि ने अपने को यज्ञकर्ता बतलाया है। जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ (३) नक्षत्रों का मुख - चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है। ज्योतिष शास्त्र का विषय नक्षत्र, चन्द्रमण्डल आदि है अतः नक्षत्रों का मुख ऐसा प्रश्न किया गया है और तदनुसार चन्द्रमा को प्रधानता के कारण मुख कहा गया है अतः मैं ज्योतिषशास्त्र का वेत्ता भी हूँ । इस तरह यह तृतीय प्रश्न का उत्तर है। (४) धर्मों का मुख - काश्यप धर्मों का मुख है। धर्मशास्त्र का वेत्ता वही हो सकता है जो धर्मों के मुख को पहचाने। अतः ऐसा प्रश्न सार्थक है। यहाँ काश्यप से तात्पर्य काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेवप्रणीत धर्म से है। वेदों में भी भगवान् ऋषभदेव की स्तुति बहुत स्थानों पर की गई है ३९ । जैसे चन्द्रमा की नक्षत्र आदि स्तुति करते रहते हैं वैसे ही इन्द्रादिदेव काश्यप (भगवान् ऋषभदेव ) की स्तुति करते रहते हैं ४० । (५) स्वपर का कल्याणकर्ता जो आदर्श ब्राह्मण है जिसके स्वरूप का वर्णन हम पहले कर आये हैं वही स्व और पर का कल्याण करने में समर्थ है। अर्थात् जो अहिंसारूप यमयज्ञ का अनुष्ठान करता है वहीं स्व और पर का कल्याणकर्ता है। पशुओं की हिंसा करने वाला याजक ब्राह्मण, या ब्राह्मणकुल में जन्म लेने मात्र से कोई स्वपर का कल्याणकर्ता नहीं हो सकता है- 'न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण तावसो'।। उत्तराध्ययन २५ / ३१ । । अर्थ- सिर मुण्डन से श्रमण, ओंकार जाप से ब्राह्मण, अरण्यवास से मुनि और कुशतृण के वस्त्र धारण करने से कोई तपस्वी नहीं कहला सकता है। ये चिह्न तो मात्र बाह्य लिङ्ग के परिचायक हैं ४१ । बाह्यवेष को ही अन्तरङ्ग शुद्धि का कारण मान बैठना भूल ४२ । बाह्य पवित्रता की अपेक्षा अन्तरङ्ग की पवित्रता को विद्वान् लोग उत्तम मानते हैं क्योंकि अन्तरङ्ग शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। शरीर की बीमारी का निवारण आन्तरिक खराबी के दूर Jain Education International करने से ही होता है। अतः प्रात: और सायंकाल जल का स्पर्श करना, कुश-यूपादि का स्पर्श करना आदि ये सभी बाह्यशुद्धि साधन हैं, इन्हें आन्तरिक शुद्धि के साधन मानना मूढ़ता है। अब प्रश्न उठता है कि यदि ऐसी स्थिति है तो ब्राह्मणादि के आन्तरिक शुद्धि के लक्षण क्या हैं? इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा है४३. समयाए समणो होड़ बम्भचेरेण बम्भणो । नाणेण उ मुणी होइ तवेण होइ तावसो । कम्पुणा बम्भणो होइ कम्पुणा होइ खत्तिओ । वइसो कम्पुणा होइ सुद्दो होई कम्मुणा । । एए पाठकरे बुद्धे जेहिं होइ सिणायओ सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं ।। एवं गुण समाउता जे भवन्ति दिउत्तमा। ते समत्या उ उद्धतुं परमप्याणमेव च।। अर्थ- समभाव से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, मनन (ज्ञान) से मुनि, तप (इच्छानिरोध) से तपस्वी होता है। कर्म से ( आचार से) ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है । इस प्रकार विस्तार से सब बातें भगवान् ने बतलाई हैं। स्नातक भी उक्त गुणों वाला ही हो सकता है तथा जो समस्त कर्मों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील है वह ब्राह्मण है और वही उत्तम ब्राह्मण स्व और पर का४४ कल्याण करने में समर्थ है। क्योंकि शीलसंयम से ही पूज्यता आती है। अतः सिद्ध है कि द्रव्ययज्ञ से भाववज्ञ, द्रव्यलिङ्गी मुनि से भावलिङ्गी मुनि, द्रव्यसंयम से भावसंयम, द्रव्यशुद्धि भावशुद्धि से श्रेष्ठ है। इस तरह पाँचवें प्रश्न का उत्तर दिया गया। भावयज्ञ करने का अधिकारी : इस यज्ञ को वही कर सकता है जो हिंसादि पापों से संवृत, शरीर में ममत्त्व और कषायों में प्रवृत्ति से रहित होकर संयत है ४५ । इसमें वैदिक कर्मकाण्डी यज्ञ की तरह जाति का कोई महत्त्व नहीं है। इस यज्ञ को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की तरह शूद्र भी कर सकते हैं। जैसे चाण्डाल कुलोत्पन्न हरिकेशी मुनि जितेन्द्रिय और प्रधान गुणों से युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है४६ चित्त और संभूत के जीव भी पूर्व जन्म में चाण्डाल कुलोत्पन्न होकर इस यज्ञ को करके क्रमशः मोक्ष और चक्रवतींपद को प्राप्त करते हैं ४७। जिस तरह पुरुष इस यज्ञ को करने के अधिकारी हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी इस यज्ञ को करके परमार्थ (मोक्ष) को प्राप्त कर सकती हैं। जैसे राजीमती ने प्राप्त किया ४८। इस तरह इस यज्ञ को सभी जीव कर सकते हैं जो सदाचार पालन करने का प्रयत्न करे। भावयज्ञ के उपकरण एवं विधिः अब हमें यह देखना है कि इस भावयज्ञ को कैसे करना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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