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________________ आधत्मिक यज्ञ: एक अनुचिन्तन द्वारा करने योग्य यज्ञों का प्रतिपादन है। एक कूटदंत ब्राह्मण ७०० इस अध्यात्म यज्ञ को वैदिक संस्कृति की प्रतीक गीता में गायों, इतने ही बछड़ों व इतने ही अन्यान्य पशुओं द्वारा यज्ञ करना कर्म-योगरूपी श्रेष्ठ यज्ञ कहा है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं चाहता है तब प्रसङ्गवश भगवान् गौतमबुद्ध अहिंसामय आदर्शयज्ञ (अ०३, श्लोक १० से १३)- 'हे अर्जुन! मैं अग्निमुख में आहतियाँ का प्रतिपादन करते हैं। इसी तरह कोसल संयुक्त में कोसल राजा अर्पण करने को यज्ञ की आत्मा नहीं समझता, किन्तु परिश्रमपूर्वक पसेनादि भी ५००बैल, ५००बछिया, ५०० बकरे, ५०० मेढ़े उत्पन्न किए धनधान्यादि तथा अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को किसी आदि की बलि चढ़ाने के लिए यूपों से बँधवाते हैं तथा राजा के विशिष्ट प्राणी को उद्दिष्ट करके ही नहीं वरन् संसार में जो कोई उसके सेवक दण्ड के भय से आखों में आँसू भरकर यज्ञ का काम करते हैं क्षेत्र में आ जाय उन सबके हितार्थ भक्तिपूर्वक अर्पण करने को मैंने तब भगवान् इस प्रकार के यज्ञों का निषेध करते हैं। इस प्रकार के जीवन का कर्मयोगरूपी श्रेष्ठयज्ञ माना है। इस प्रकार करते हए जो अहिंसा यज्ञों का सम्पादन महाराजा विजित और अशोक ने किया था। कुछ निर्वाहार्थ मिल सके उसे ही ईश्वर का अनुग्रह समझकर उपयोग अशोक का अहिंसा चक्र तो लोकविख्यात ही है। करता हूँ इससे आत्मशुद्धि होती है। अत: यही यज्ञ की आत्मा है।३७ इस तरह सभी भारतीय चिन्तकों ने वैदिक कर्मकाण्डी यज्ञ अध्यात्मयज्ञ या ज्ञानयज्ञ की आध्यात्मपरक व्याख्या की है। यहाँ पर हम उत्तराध्ययनसूत्र के अध्यात्मप्रधान होने से इसे अध्यात्मयज्ञ कहते हैं और ज्ञान २५ वें यज्ञीय अध्ययन से एक प्रसङ्ग उद्धृत करना चाहते हैं जिससे की प्रधानता होने से ज्ञानयज्ञ कहते हैं। __ यज्ञ सम्बन्धी बहुत सी बातों का स्पष्टीकरण हो जावेगा। यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या करना तथा उसके द्रव्यमय . जयघोष नामक एक जैन मुनि जब विहार करते हुए अपने स्वरूप को हटाकर 'ज्ञानमय' रूप देने की प्रवृत्ति का उदय ब्राह्मण भाई विजयघोष ब्राह्मण के यज्ञमण्डप में पहुँचते हैं तो वहाँ पर युग में ही हो गया था। शतपथ ब्राह्मण में हम यत्रतत्र आध्यात्मिक उपस्थित ब्राह्मण याजकों से यज्ञान्न की याचना करते हैं। यह सुनकर अर्थों में यज्ञ प्रक्रिया की व्याख्या को देखते हैं। जैसे-ऐषा नु देवता ब्राह्मण लोग कुपित हो जाते हैं और मुनि की निन्दा करते हुए कहते दशौर्णमासयोः सम्पत् अथाध्यात्मम्-यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म, एष वै हैं कि इस यज्ञान को सिर्फ वेदविद्, यज्ञकर्ता, ज्योतिषाङ्गविद्, महान्देवो यद्यज्ञः, वैशो वै वृहत्विपश्चित् यज्ञो वै ब्रह्म, संवत्सरो वै धर्मशास्त्रज्ञाता तथा स्वपर का कल्याणकर्ता ब्राह्मण ही प्राप्त कर यज्ञः, आत्मा वै यज्ञः, परुषों वै यज्ञ: आदि। आरण्यकों ने इस दिशा सकता है। तब मुनिराज इसके उत्तर में कहते हैं कि आप लोग न तो में गति प्रदान की और वानप्रस्थ मुनियों के लिए इस अध्यात्मयज्ञ का वेदों के मुख को जानते हो, न यज्ञों के मुख को, न नक्षत्रों के मुख प्रतिपादन करते हुए इसे सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहा। धर्म के १० प्रकार को, न धर्मों के मुख को और न स्वपर के कल्याणकर्ता को। अत: न बतलाते हुए आरण्यक में कहा है तो आप लोग वेद-विद् हैं, न यज्ञविद् हैं, न ज्योतिषाङ्गविद् हैं, न सत्यं तपश्च संतोषः क्षमा चारित्रमार्जवम् । धर्मशास्त्र के ज्ञाता हैं और न स्वपर के कल्याणकर्ता हैं। इस बात को श्रद्धा धृतिरहिंसा च संवरश्च तथा परः।। सुनकर वे ब्राह्मण मुनिराज से पूछते हैं कि कौन वेदादि के मुख को ___ अर्थ- सत्य, तप, संतोष, क्षमा, चारित्र, ऋजुता (आर्जव), जानता है और वेदादि के मुख क्या है? यह सुनकर मुनिराज गम्भीर श्रद्धा, धृति, अहिंसा तथा संवर- ये १० धर्म के प्रकार हैं। अर्थ से युक्त भाषा में वैदिक और जैन दृष्टि से समन्वित जो उत्तर देते इसके बाद उपनिषदों में तो इस प्रवृत्ति की गतिशीलता हैं वह निम्न प्रकार हैस्पष्ट और सुदृढ़ हो जाती है जो गीता में परिपूर्णता प्राप्त कर लेती (१) वेदों का मुख-अग्निहोत्र वेदों का मुख है (जिस है। छान्दोग्य उपनिषद् के तृतीय अध्याय में मनुष्य को यज्ञ और वेद में सच्चे अग्निहोत्र का प्रधानता से वर्णन हो वही वेद वेदों का मनुष्य की समस्त क्रिया-कलापों को ही यज्ञ की विभिन्न अवस्थाओं मुख है)। 'अग्निमुखा वै वेदाः' ऐसी श्रुति भी है। वेदों में इसी अग्नि का रूप दिया गया है। इसी तरह बृहदारण्यक, ऐतरेयारण्यक आदि की प्रधानता होने से अग्नि के संस्कार को ही यज्ञ कहा जाता है। उपनिषदों में यज्ञ को 'ज्ञान-यज्ञ' का रूप दिया गया है तथा जीवन वैदिक, दैविक और भौतिक अग्नि में वैदिक अग्नि 'यज' कहलाती की समस्त क्रियाओं को यज्ञरूप बताया है। जैसे-कौषीतकि (२/५) है। इस तरह वेदानुसार अर्थ संगत हो जाता है। परन्तु मुनिराज को मे अग्निहोत्र को प्राणायाम के रूप में, छान्दोग्य में (४/११-१४) यहाँ पर तप रूप अग्नि अभिप्रेत है, जिस तपाग्नि से कर्मरूपी तीनों प्रकार की अग्नियों को आत्मा के रूप में परिवर्तित कर दिया महावन ध्वस्त किया जा सके। कहा भी हैहै। तैत्तरीय (२/५) में ज्ञान को यज्ञ और कर्म दोनों ही कहा है कर्मेन्धनं समाश्रित्य दृढसद्भावनाहुतिः । (विज्ञान यज्ञं तनुते कर्माणि तनुते च)। ऐसे अनेक स्थल उपनिषदों में धर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ।। विद्यमान हैं जिनमें यज्ञ के द्रव्यमय बाह्यस्वरूप के स्थान पर ज्ञानमय अर्थात् धर्मध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी इन्धन को जलाना आध्यात्मिक यज्ञ की प्रतिष्ठापना है। चाहिए। इस तरह मैं वेदों का मुख जानने से वेदविद् हूँ, अत: यज्ञान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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