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________________ २८ जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ आवश्यक है जो अग्नि की तरह संसार में (पापरहित होने से ) पूजनीय है तथा कुशलों (श्रेष्ठ - महापुरुषों) द्वारा संदिष्ट है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो स्वजनों में आसक्तिरहित है, प्रव्रज्या लेकर शोक करता है तथा आर्यवचनों में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो कालिमा आदि मैलापन से रहित, स्वर्ण की तरह राग, द्वेष, भय आदि दोषों से रहित है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो तपस्वी, कृश, दमितेन्द्रिय सदाचारी, निर्वाण के सम्मुख है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो मन, वचन, काय से त्रस एवं स्थावर प्राणियों की हिंसा किया गया। जैन सम्प्रदाय में भी ऐसे यज्ञ विद्यमान हैं- जैसे पंचकल्याणक, नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। मंदिर वेदी प्रतिष्ठा आदि। परन्तु इनका विधान सिर्फ गृहस्थों के लिए जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से मिथ्या वचन नहीं ही किया गया है जिससे स्पष्ट है कि ये यज्ञ परमार्थसाधक नहीं हैं। बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। इनका उद्देश्य सिर्फ धर्म का प्रचार एवं प्रसार है। भावयज्ञः जो सचित्त अथवा अचित्त वस्तु को थोड़ी अथवा अधिक मात्रा में बिना दिए हुए ग्रहण नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो मन, वचन, काय से दिव्य लोक सम्बन्धी, मनुष्यलोक सम्बधी एवं तिर्यञच सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। यही सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है ३२ भावों की प्रधानता होने के कारण इसे भावयज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ के सम्पादन में बाह्य किसी सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती है। कोई भी इस यज्ञ को कर सकता है। जो जल में उत्पन्न होकर भी जल से भित्र कमल की तरह विभिन्न ग्रन्थों में इस यज्ञ के विभिन्न नाम है जो अपनी सार्थकता लिए कामभोगों में अलिप्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो लोलुपता से रहित, मुधाजीवी (भिक्षान्नजीवी), अनगार, अकिञ्चन वृत्तिवाला गृहस्थों में असंसक्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो पूर्व संयोग (मातापितादि), ज्ञातिजनों के संयोग तथा बन्धुजनों के संयोग को त्यागकर पुनः भोगों में आसक्त नहीं होता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। इस विवेचन से ज्ञात होता है कि जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशीन और परिग्रह को त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अकिञ्चन भाव को धारण करता है, राग-द्वेष से रहित है, सदाचारी है वही ब्राह्मण है। केवल ओंकार का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता है अपितु ब्रह्मचर्य को जो धारण करे वही ब्राह्मण है २७ । ऐसा ब्राह्मण सबके द्वारा पूज्य, अबध्य और मुक्ति को प्राप्त करनेवाला होता है जो इन लक्षणों से रहित होकर 'यज्ञ' 'यज्ञ' चिल्लाया करते हैं वे मूढ शुष्क तपश्चर्या करने और वेद के असली रहस्य को जाने बिना सिर्फ अध्ययन करने वाले राख से आवृत्त अंगार की तरह है २८ | 2 अतः जो वेद पशुवध का उपदेश देते हैं उन वेदों के वेद मन्त्रों द्वारा दी गई यज्ञ की आहुतियाँ दुःशील वेदपाठी एवं यज्ञकर्ता की रक्षा नहीं करती हैं क्योंकि कर्म बलवान हैं और वे बिना फल दिए दूर नहीं होते हैं२९ । इस तरह हम देखते हैं कि प्राचीन काल में ब्राह्मणों का Jain Education International आचार कितना आदर्शपूर्ण और उच्च था तथा वे जो यज्ञ करते थे थे पशु-हिंसा से रहित और निर्दोष सामग्री से निर्मित होते थे और जैन साधु भी उस यज्ञान्न को खाते थे ३० । परन्तु बाद में यज्ञ पशु-हिंसा से दूषित हो गये जिससे महापुरुषों के द्वारा निन्दनीय हुए। स्मार्त द्रव्ययज्ञः , इनमें हिंसा नहीं होती है अपितु इनका संपादन धृत धान्य आदि से होता है ३१ । इन यज्ञों में याजक की भावना हिंसा करने की नहीं रहती है फिर भी जो स्थावर जीवों की हिंसा इस यज्ञ की व्यवस्था में होती है वह नगण्य है। अतः इन यज्ञों का विरोध नहीं हुए हैं। जैसे - (१) यमयज्ञ ३३ यम मृत्यु का देवता माना जाता है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी (देवता भी) नहीं है जो मृत्युरूप यम देवता के द्वारा प्रसित न होता हो। अतः जिस यज्ञ में मृत्युरूपी यम देवता का हवन किया जाता है और जिससे संसार का आवागमन छूट जाता है उसे यमयज्ञ कहते हैं। (२) अहिंसायज्ञ ३४- इस यज्ञ में अहिंसा की प्रधानता होने से इसे अहिंसा यज्ञ कहते हैं अहिंसा सब धर्मों का मूल है। कहा है' अहिंसा परमो धर्मः' जैनधर्म में जो पाँच महाव्रत बताये हैं उनमें अहिंसा महानत ही प्रधान है। इस अहिंसा की रक्षा के लिए ही अन्य सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत माने गये हैं। पांचों महाव्रतों का महत्त्व अचिन्त्य है । इनके पालन से ब्रह्म की प्राप्ति होती है३५ इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों में कई यज्ञों के नाम हैं ३६ । जैसे(१) दानयज्ञ- शीलवान प्रव्रजितों के लिए नित्य दान देना । (२) त्रिशरणयज्ञ - बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाना । (३) शिक्षापदवज्ञ यम नियमों का ग्रहण करना । (४) शीलयज्ञ - पाँच शीलव्रतों का पालन करना । (५) प्रज्ञायज्ञ अज्ञान का विनाश करके ज्ञानार्जन करना। (६) समाधियज्ञ — ध्यान द्वारा चित्तैकाग्र करके चित्तविशुद्धि करना दीघनिकाय के कूटदंत सुल में राजाओं और ब्राह्मणों के For Private & Personal Use Only --- - www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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