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आधत्मिक यज्ञ: एक अनुचिन्तन
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आटे का कल्पित मर्गा बनाकर बलि चढ़ाते हैं जिसके फलस्वरूप वे गायें भी हमारी मित्र हैं क्योंकि खेती उनपर निर्भर है। वे अन्न, बल, कई भवों तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस प्रकार यह बतलाया कान्ति एवं सुख देने वाली हैं। ऐसा सोचकर प्राचीन काल में गायों गया है कि जब कल्पित पशु की बलि इतनी अनिष्टकर हो सकती है की हत्या नहीं करते थे। यहाँ पर हम 'बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय तो साक्षात्पशु की बलि चढ़ाने से क्या दुर्गति होगी इसकी कल्पना दर्शन'२१ से एक प्रसङ्ग उद्धृत करते हैंनहीं की जा सकती है। .
'हम भगवान् की उन पूर्व ऋषियों के प्रति आदर वृद्धि का एक अन्य संवाद जैन 'पद्मपुराण' में आता हैं जिसमें नारद प्रकाशन और कर दें जो कि एक अत्यन्त सरल ढंग से यज्ञ करते थे और पर्वत के शैव 'अजैर्यष्टव्यम्' शब्द के अर्थ को लेकर विवाद और जिनके आचरण अत्यन्त पवित्र थे। ये ऋषि संभवत: संहिता उत्पन्न हो जाता है। तब वे से वो सलाह करके उचित निर्णय कराने काल के ही हो सकते हैं, क्योंकि इसी युग में इस प्रकार का सरल के लिए राजा वसु के पास अग्रिम दिन जाते हैं। राजा वसु सत्यवादी यज्ञमय विधान प्रचलित था। कुछ-कुछ इसे हम ब्राह्मण युग का भी था तथा उसके प्रभाव से उनका सिंहासन पृथ्वी से ऊपर उठा रहता परिचायक कह सकते हैं। पुराने ऋषि संयमी और तपस्वी होते थे। था। राजदरबार में पहुँचकर दोनों अपने-अपने पक्षानुसार 'अजैर्यष्टव्यम्' पाँच कामगुणों को छोड़ वे अपना अर्थ (ज्ञान, ध्यान) करते थे। उस का अर्थ बताते हैं- .
समय ब्राह्मणों के पास न पशु थे, न हिरण्य, न अनाज। वे स्वाध्यायरूपी (१) नारद-'अज से यज्ञ करना चाहिए' का अर्थ है- 'उस धन-धान्य वाले थे। ब्रह्मनिधि का पालन करते थे। नाना रंग के वस्त्रों, प्रकार के हात्य (धान) से यज्ञ (हवन) करना जिसमें सहकारी कारण शयन और आवसथों (अतिथि शालाओं) से समृद्ध जनपद-राष्ट्र उन मिलने पर भी अंकर उत्पन्न करने की शक्ति वर्तमान न हो।' ब्राह्मणों को नमस्कार करते थे। ब्राह्मण अबध्य, अजेय, धर्म से रक्षित
(२) पर्वत- 'अज से यज्ञ करना चाहिए' का अर्थ है- थे, कुलद्वारों पर उन्हें कभी कोई नहीं रोकता था। ...... वे तण्दुल, 'बकरे की बलि चढ़ाकर यज्ञ (हवन) करना।
शयन, वस्त्र, घी और तेल को मांगकर धर्म के साथ निकालकर यज्ञ राजा यद्यपि अज' शब्द का अर्थ कई बार धान्यविशेष कर करते थे। यज्ञ-उपस्थिति होने पर वे गाय को नहीं मारते थे।२२ चुके थे परन्तु किसी एक वचनबद्धता के कारण पर्वत के पक्ष में ब्राह्मणत्व की महिमा का कितना सुन्दर प्रख्यापन है, साथ ही वैदिक अपना निर्णय दे देते हैं। फलस्वरूप राजा का सिंहासन पृथ्वी पर गिर युग के निर्व्याज समाज और पशु-हिंसा के अभाव का कितना बड़ा पड़ता है और वे ७वें नरक में जाकर अनन्त कष्टों को झेलते हैं। इस साक्ष्य भी।' प्रसंग में सिर्फ इतना ही बताया है कि 'अज' शब्द का अर्थ बकरा ‘पशु हिंसामयी निकृष्ट तपस्या तो बुद्ध को ही नहीं सभी नहीं है अपितु धान्य विशेष है जिसमें अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति भारतीय मनीषियों के लिए घृणा की वस्तु है, किन्तु वास्तविक क्षीण हो चुकी है। 'अज' शब्द का मिथ्या अर्थ करना मात्र दुर्गति का 'द्रव्ययज्ञ' को भगवान् घृणित वस्तु नहीं समझते थे और अधिकतर कारण हो जाता है तब फिर पशु-यज्ञ कैसे धर्म कहे जा सकेंगे। प्रवृत्ति तो उनकी यज्ञादिकों को नैतिक व्याख्या प्रदान करने की थी
पशु-यज्ञ की यह प्रथा अनार्य, मांस-लोलुप, ब्राह्मणों द्वारा जैसी कि उपनिषदों की आध्यात्मिक व्याख्या प्रदान करने की थी'२३। प्रचलित की गई। जैसा कि महाभारत में कहा है
एक आदर्श द्रव्ययज्ञ का वर्णन करते हुए भगवान् कहते 'सुरा मत्स्या मधु-मांसमासवं कृसरौदनम् । है: 'ब्राह्मण! इस यज्ञ में गौएँ नहीं मारी गईं, बकरे, भेंडे, मुर्गे, धूतैः प्रवर्तितं ह्येतन् नैतद् वेदेषु कल्पितम् ।।' सुअर आदि नहीं मारे गए, न नाना प्रकार के प्राणी मारे गए। न यूप
महाभारत, शान्तिपर्व २६५/९।। के लिए वृक्ष काटे गये। जो भी उसके दास, प्रेष्य, कर्मकर थे उन्होंने चूंकि संसारी प्राणी स्वभाव से विषयासक्त होते हैं फिर यदि भी दंड-तर्जित हो, अश्रुमुख रोते हुए सेवा नहीं की। जिन्होंने चाहा उन्हें इस प्रकार का उपदेश मिल जाय तो शीघ्र ही उसे ग्रहण कर उन्होंने किया, जिन्होंने नहीं चाहा उन्होंने नहीं किया। जो चाहा सो लेते हैं। फलस्वरूप पशु-यज्ञों का प्रचलन बढ़ गया। परन्तु जो आर्य किया, जो नही चाहा सो नहीं किया। घी, तेल, मक्खन, दही, मध, ब्राह्मण थे उनमें यह बात नहीं थी। उनका आदर्श ऊँचा था। बौद्ध गुड़ से ही वह यज्ञ समाप्त हुआ।२४" इस तरह हम देखते हैं कि वेद ग्रन्थ सुत्तनिपात के ब्राह्मण धम्मिक सुत्त में जो ब्राह्मणों का आचरण में पशु-हिंसा मौलिक नहीं है किन्तु बाद में अनार्य मांस-लोभी बतलाया है वह बड़ा ही उच्च एवं आदर्शमय है
ब्राह्मणों द्वारा लाई गई है२५। यदि ऐसा न होता तो जो याजक यह 'यथा माता पिता भाता अञ्चे वापि च आतका। कहते हैं कि यज्ञ में जिस पशु का हवन किया जाता है वह स्वर्ग को गावो नो परमामित्ता यासु जायन्ति ओसघा।। जाता है, वे स्वयं को क्यों नहीं हवन कर देते जिस स्वर्ग की प्राप्ति अन्नदा वलदा चेता वण्णदा सुखदा तथा।
के लिए इतना द्राविड-प्राणायाम करते हैं। एतमत्थवसं ञत्वा नास्सु गावो हनिंसु ते।।'
इसी तरह जैन आगमग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र में भी आदर्श अर्थ- माता, पिता, भाई और अन्य नातेदारों की तरह ब्राह्मण का स्वरूप बतलाया गया है२६ उसे यहाँ प्रस्तुत करना
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