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इस विवेचन से स्पष्ट है कि सभी भारतीय मनीषियों ने हिंसा-प्रधान यज्ञों का प्रबल विरोध करके अहिंसामूलक यज्ञों की प्रतिष्ठा की गृहस्थी के लिए कुछ घृतादि से सम्पन्न होने वाले द्रव्ययज्ञों का खण्डन न करते हुए भावयज्ञों या यमयज्ञों या अध्यात्मयज्ञों को सर्वश्रेष्ठ यज्ञ बतलाया। इस प्रकार के ही यज्ञ वस्तुतः परम तत्त्व की प्राप्ति में सहायक हैं। इस प्रकार के यज्ञों की पूर्णता सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र की समष्टि में या प्रज्ञा, शील और समाधि की समष्टि में या भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का समष्टि में है, एकत्व में नहीं। अतः कहा है— चारित्र की पूर्णता ज्ञान के बिना संभव नहीं है तथा ज्ञान गुण की पूर्णता चारित्र के अभाव में नहीं है अपितु दोनों की समप्ति में ही पूर्णता है५३ उपनिषदों में जो 'ज्ञानयज्ञ' की चर्चा है सो उसमें चारित्र भी गतार्थ है क्योंकि जिसे सम्यग्ज्ञान हो जावेगा वह कभी मिथ्याचरण कर नहीं सकता है तथा पूर्णज्ञान की प्राप्ति बिना चारित्र के आ नहीं सकती है। चूँकि संसार का मूलकारण अज्ञान है अतः उससे निवृत्ति का कारण भी ज्ञान है। इस दृष्टि से वहाँ पर 'ज्ञानयज्ञ' की चर्चा है अतः भावों की निर्मलता जिसमें प्रधान है ऐसा अहिंसात्मक अन्तरङ्ग शुद्धि को करने वाला यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ है। उसे हम अध्यात्मयज्ञ यमयज्ञ, अहिंसायज्ञ, भावयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, ध्यानयज्ञ, शीलयज्ञ कुछ भी कहें उन सबका तात्पर्य एक ही है अन्तरात्मा की शुद्धि और यही मुक्ति है। सन्दर्भ
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१. जड़ता विउले जने भोइत्ता समणमाहणे।
दत्ता भोच्चा य जिट्ठा य, तओ गच्छसि खत्तिया ।।
उत्तराध्ययन, संपा० भगवान् विजयजी, प्रका० श्री चन्द्र भट्टाचार्या, कलकत्ता, वि०सं० १९३६ ९/३८ २. बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, भरतसिंह अपाध्याय, बंगाल हिन्दी मंडल, कलकत्ता, वि०सं० २०११, पृ० ७३९ तथा शतपथब्राह्मण २/२/२/६, २/४/३/१४ ३. वही
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४.
८.
९.
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
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५.
६.
७. औषधयः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा।
ऋग्वेद १/३७/४ ३/१८/३
शतपथब्राह्मण ११/५/८१, बृहदारण्यक २/४ / २६. उत्तराध्ययन २५ वां यज्ञीय अध्ययन, गाथा १९ से २९ तक। १० एवं परुषसूक्त २७. वही २५/३१,३२ । नहाने से शुद्धि नहीं होती अपितु जो सत्य, धर्म और शुचि से युक्त हैं वे ही ब्राह्मण हैं।
इस विषय में जैन और बौद्ध आगम ग्रन्थों को देखिए । उत्तरा० २५ / ७, ८ एवं १२ / ११
जटिलसुत्त; उदान १/९ तथा जो सत्यव्रती, जितेन्द्रिय, वेदन्तगू और ब्रह्मचारी हैं वे ही यज्ञोपवीत हैं संयुक्तनिकाय ७/१/९ २८. उत्तरा० २५/१८
२९. वही, २५/३०
३०. वही, १२ वां एवं २५वां अध्ययन
३१. वही, १२ / ३४
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितं पुनः । शतपथब्राह्मण श्री चन्द्रधर शर्मा, प्रका० अच्युतग्रंथमालाकार्यालय, काशी वि०सं० १९९४ ।।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः ।
वैदिक संस्कृति का विकास, लक्ष्मण शास्त्री जोशी, हिन्दी ग्रंथ
रत्नाकर लिमिटेड, बम्बई १९५७ ई० पृ० ४२
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१०. बौ० दर्शन और अ० भा० दर्शन, भरतसिंह, पृ० ७३९
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तथा ऋग्वेद १/३७/४; ३/१८/३
११. यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः, गीता, श्री हरिकृष्णदा गोयनका, गीता प्रेस गोरखपुर, वि०सं० १९९५ ३-१४। १२. उत्तरा० भगवान विजयजी, १२/१०
१३. प्रमाणवार्तिक संपा० दलसुख मालवणिया, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी १९५९ १/२१९-२१,२५. सुत्तनिपात (पुण्णक- माणवपुच्छा) अनु० भिक्षु धर्मरत्न, महाबेधि
१४.
सभा, सारनाथ (बनारस), १९५१, ५/३
१५. वाजसनेयिसंहिता ३/५०, शतपथब्राह्मण, संपा०, श्री चन्द्रधर शर्मा, २/५/३/१९ ।
१६.
यज्ञादि से हमें स्वर्ग की प्राप्ति भले ही हो जावे परन्तु उससे परमार्थ की प्राप्ति नहीं होती है देखिये, छान्दोग्य १ / २ / १०: बृहदाण्यक १ / ५ / १६; ६ / २ / १६; प्रश्न १ / ९; मुण्डक १/ २/ १० । अष्टादश उपनिषद संपा० आचार्य वि०प्र० लिमये, वैदिक संशोधनमण्डल, पुण्यप्तन, वि०सं० १८८० १७. कठ १/१७ ३/२ श्वेताश्वतर २ / ६-७ आदि १८. बृहदारण्यक १/४/१० ३/९/६, २१ १९. छान्दोग्य १ / १२ / ४,५१
२०. देखिए सांख्यकारिका पर गौडपादभाष्या
२१. भरतसिंह उपाध्याय, द्वितीय भाग बंगाल हिन्दी मंडल, कलकत्ता, वि.स. २०११. पृ० ७३८, ७४२, ७४३.
२२. सुत्तनिपात (धम्भियसुत्त ब्राह्मण) अनु० भिक्षुधर्मरत्न, महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस), १९५१ तथा अंगुत्तरनिकाय द्रोणसुत २३. देखिए, बौद्ध दृष्टिकोण के लिए दीघनिकाय कूटदंतसुत्त तथा सुचनिपाता।
२४. वही
२५. अट्ठकथा चंकिसुत, बुद्धचर्या, पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका० शिवप्रसाद गुप्त, सेवा उपवन, काशी, वि०सं० १९८८. पृ० २२४ ॥
३२. वही, १२ / ४२
३३. वही, २५/१
३४. वही, १२ एवं २५ वाँ अध्ययन ।
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