________________
३६
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
उदाहरणार्थ-सेना युद्ध करती है किन्तु उपचार से कहा जाता है कि आदि कर्म के विपाक को निमित्त पाकर जीव स्वयंमेव रागादि रूप राजा युद्ध करता है, उसी प्रकार आत्मा व्यवहार दृष्टि से ही परिणमन करता है। अत: 'जीव अपने भावों का कर्ता है पद्रल ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता कहलाता है। २८ प्रवचनसार की टीका कर्मकृत सब भावों का नहीं३४' ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता पद्गल में कहा गया है कि आत्मा अपने भावकर्मों का कर्ता होने के कारण है। इस प्रकार शुद्ध निश्चय की दृष्टि से वह परभाव का अकर्ता है उपचार से द्रव्य कर्म का कर्ता कहलाता है,२९ जिसप्रकार लोक पर अशुद्ध निश्चय की दृष्टि से वह अपने अशुद्धभाव का कर्ता है। रूढ़ि है कि कुम्भकार घड़े का कर्ता व भोक्ता होता है उसी प्रकार आत्म परिणामों के निमित्त से कर्मों को करने के कारण आत्मा रूढ़िवश आत्मा कर्मों का कर्ता व भोक्ता है।३° पर और आत्मद्रव्य व्यवहार नय से कर्ता कहलाता है३५। के एकत्वाध्यास से आत्मा कर्ता होता है।३१ जीव (आत्मा) और पुद्गल में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
सांख्य-सम्मत अकर्तृत्ववाद का खण्डन : किसी भी क्रिया के सम्पादित होने में उपादान-उपादेय भारतीय दर्शनों में सांख्य ही एक ऐसा दर्शन है जो आत्मा एवं निमित्त-नैमित्तिक कारण मुख्य हैं। जो स्वयं कार्यरूप परिणमन को अकर्ता मानते हये भोक्ता मानता है। सांख्यवादियों का मत है कि करता है वह उपादान कहलाता है और जो कार्य होता है वह पुरुष अपरिणामी एवं नित्य है इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता; उपादेय कहलाता है, जैसे-मिट्टी घटाकार में परिणित होती है, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्म प्रकृति के हैं इसलिये प्रकृति ही कर्ता अतः वह घट का उपादान है और घट उसका उपादेय है। यह है३६। अन्य दार्शनिकों की तरह जैन-दार्शनिकों ने भी सांख्यों के इस उपादान-उपादेय भाव सदा एक ही द्रव्य में बनता है क्योंकि एक सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि पुरुष अकर्ता है और द्रव्य अन्य द्रव्य रूप परिणमन त्रिकाल में भी नहीं कर सकता।३२' पुरुष प्रकृति द्वारा किये गये कर्मों का भोक्ता है तो ऐसे पुरुष की उपादान को कार्यरूप में परिणित करने वाला या परिणित करने में परिकल्पना ही व्यर्थ है३७। कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं 'यदि पुरुष को जो सहायक है, वह निमित्त कहलाता है, और उस निमित्त से अकर्ता माना जाय और समस्त कार्यों को करने वाली जड़ प्रकृति को उपादान में जो कार्य निष्पन्न हुआ है वह नैमित्तिक कहलाता है- माना जाय तो प्रकृति हिंसा करने वाली होगी तथा वही हिंसक जैसे कुम्भकार तथा उसके दण्ड, चक्र, चीवर आदि उपकरणों से कहलायेगी, जीव असंग व निर्लिप्त है इसलिए जीव हिंसक नहीं मिट्टी में घटाकार परिणमन हुआ तो यह सब निमित्त हुये व घट होगा, ऐसी स्थिति में वह हिंसा के फल का भागी भी नहीं होगा। जैन नैमित्तिक हुआ। यहां निमित्त व नैमित्तिक दोनों पुद्गल द्रव्य के दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव अपने परिणामों से दूसरे अन्दर निष्पन्न हैं और जीव के रागादिभावों का निमित्त पाकर की हिंसा करता है, फलतः वह जीव दूसरे की हिंसा के फल का कर्मवर्गणा रूप पुद्गल द्रव्य में परिणमन हुआ। जब उपादान उपादेयभाव भागी होता है।३७ इस प्रकार सांख्यमत में जड़ प्रकृति कर्ता हो की अपेक्षा विचार होता है तब चूँकि कर्मरूप परिणमन पुद्गल रूप जायेगी तथा सभी आत्मायें अकर्ता हो जायेंगी। जब आत्मा में उपादान में हुआ है, इसलिए इसका कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं। कर्तृत्त्व नहीं रहेगा तब उसमें कर्मबन्ध का अभाव हो जायेगा। किन्तु जब निमित्त-नैमित्तिक भाव की अपेक्षा विचार होता है तब कर्मबन्ध का अभाव हो जाने से संसार का अभाव हो जायेगा, एवं जीव के रागादिक भावों का निमित्त पाकर पुद्गल में कर्मरूप संसार न होने से आत्मा को सदा मोक्ष होने का प्रसंग आ जायेगा परिणमन हुआ है, कुम्भकार के हस्तव्यापार का निमित्त पाकर घट जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है। अत: सांख्य की तरह आचार्य कुन्दकुन्द का निर्माण हुआ है इसलिए इनके निमित्त क्रमश: रागादिक भाव आत्मा को सर्वथा अकर्ता नहीं मानते क्योंकि भेदज्ञान के पूर्व व कम्भकार हैं। इसी प्रकार द्रव्य कर्मों की उदयावस्था का निमित्त अज्ञानदशा में आत्मा रागादिभावों का कर्ता है और भेद ज्ञान के पाकर जीव में रागादिक परिणति हुई है इसलिए इस परिणति का अनन्तर वह एकमात्र ज्ञायक रह जाता है। . उपादान कारण जीव स्वयं है और निमित्त कारण द्रव्य कर्म की उदयावस्था है अर्थात् पुद्गल द्रव्य जीव के रागादिक परिणामों का बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन:निमित्त पाकर कर्मभाव को प्राप्त होता है, इसी तरह जीव द्रव्य भी आत्मकर्तृत्ववाद के प्रसंग में कुन्दकुन्दाचार्य ने क्षणिकवाद पुद्गलकर्मों के विपाककाल रूप निमित्त को पाकर रागादिभाव रूप का खण्डन किया है। क्षणिकवादी बौद्धों के अनुसार 'यत्सत् क्षणिकम्' परिणमन करता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी इस सिद्धान्त के अनुरूप जो वस्तु जिस क्षण में वर्तमान है, उसी क्षण जीव, द्रव्य कर्म में किसी गुण का उत्पादक नहीं होता अर्थात् उसकी सत्ता है, ऐसा मानने पर वस्तु के क्षणिक होने से, जो कर्ता पद्गल द्रव्य स्वयं ज्ञानावरणादि भाव को प्राप्त होता है। इसी तरह है वही भोक्ता नहीं होगा क्योंकि वह तो उसी क्षण विनष्ट हो गया। कर्म भी जीव में किन्ही गुणों का उत्पादक नहीं अपितु मोहनीय इस प्रकार अन्य ही कर्ता और अन्य ही भोक्ता सिद्ध होगा जो कि
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org