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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मुख्य दो प्रमाण हैं- एक तो उसमें वर्णित उपदेश न तो काल बाध्य के लिये आगमों की मूल भाषा का परिवर्तन और संशोधन करना हैं, न देश बाध्य हैं। दूसरे, उसमें ऐसा कहीं कुछ आदेश या निर्देश पड़ा। मलयगिरि आदि टीकाकारों की भाषा के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है जिसमें यह प्रतिबंध हो कि यह अमुक पंथ के लिये है, अमुक परिवर्तन बहुत स्पष्ट है। आगमों की भाषा में इतना परिवर्तन और के लिए नहीं। यह तो आगम का अपमान है कि उसे पंथ विशेष का इतनी विविधता कभी-कभी बहुत कठिनाई प्रस्तुत करती हैं और ग्रंथ माना जाता है।
लगता है कि प्राकृत भाषा में नियमों की उपेक्षा है और इसलिए एक
प्रकार से संपादकीय अनुशासनहीनता भी नजर आती है। किन्तु आगम की भाषा : जनभाषा
इसकी प्राणवत्ता एवं सहजता का संस्पर्श तो दिव्य है। वस्तुत: वैदिक संस्कृत में जो सहजता और स्वयं स्फूर्तता थी वह पाणिनि के उत्तरकाल में प्राप्त नहीं है। वहाँ तो व्याकरण के उपसंहार नियमों के बंधन इतने प्रचंड हैं कि सहजता, अकृत्रिमता संभव नहीं। जो भी हो आगम साहित्य विशाल, विविधता युक्त एवं भाषा जब व्याकरण के नियमों से बंध जाती है तो इसकी सहजता प्राणवान है। इसमें प्राचीनतम जैन परम्परा, अनुश्रुतियाँ, लोक कथाएं, और स्वतः स्फूर्तता में कमी आ जाती है। श्रमण संस्कृति कोई धर्मोपदेश, दर्शन 'आचार' रीति-रिवाज सभी का यह विश्वकोष जैसा अभिजात्य संस्कृति या पंडित-संस्कृति नहीं थी इसलिए भगवान बुद्ध है। व्याख्या प्रज्ञप्ति में महावीर का तत्त्व-ज्ञान, उनकी शिष्य परम्परा ने भी जनभाषा पालि का उपयोग किया और तीर्थंकरों ने जनभाषा एवं मत-मतान्तरों का विवेचन, कल्पसूत्र में महावीर का विस्तृत प्राकृत को अपनाया। लेकिन यह एक दुर्भाग्य है कि जनभाषा होते जीवन और ज्ञाताधर्मकथा, निर्ग्रन्थप्रवचन के साथ उपदेशयुक्त कथाहए भी आज जन से बहुत दूर है। इसके अनेक ऐतिहासिक और कहानियां, आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक सूत्रों में राजनैतिक कारण भी हैं। भगवान महावीर ने अर्धमागधी भाषा में आचरण और संयम के नियम मिलते हैं। जो भी हो आगम केवल उपदेश दिया और गणधरों ने इस उपदेश के आधार पर आगमों की जैन सम्प्रदाय का ही नहीं भारतीय मनीषा का दुर्लभ वाङ्मय है। रचना की। रुद्रट काव्यालंकार के अनुसार प्राकृत वह है जो व्याकरण दिगम्बरों के षट्खंडागम और कषायपाहुड जैसे विशाल ग्रंथ और आदि के संस्कार से विहीन है और जो बालक, महिला आदि की उनकी टीकाएँ आकार में महाभारत से कम नहीं माने जा सकते हैं। आसानी से समझ में आ सकती है। किन्तु हेमचन्द्र और मार्कण्डेय अभी जैन आगम पर बहुत कम काम हुए हैं। अभी तो इसका आदि विद्वान् ने प्राकृत की प्रकृति संस्कृत से निष्पन्न समझते हैं। जो समीक्षात्मक अध्ययन शुरू नहीं हुआ है। जब हम आगमों की गहराई भी हो, प्राकृत एक लोक भाषा है और कठोर व्याकरण के बोझ से में जायेंगे तो इसमें भी विज्ञान और अध्यात्म दोनों का समन्वय बहुत हद तक मुक्त है। आगमों की भाषा में विविधता दीखती है। पायेंगे। सम्प्रदाय निरपेक्ष विचारधारा के साथ दोनों का अलग-अलग समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना आदि आगमों की भाषा को मूल्यांकन होना चाहिए। आगम के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत नाम दिया है। टीकाकारों को सूत्र स्पष्ट करने का इतिहास अपूर्ण रह जायेगा।
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