SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत प्रो० प्रेमसुमन जैन प्राकृत भाषा के प्राचीन ग्रन्थों में अर्धमागधी में लिखित और वृद्धी को रूपक द्वारा प्रस्तुत करती है। उदकजात नामक कथा अंगग्रन्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति और चिंतन के क्रमिक विकास को संक्षिप्त है। किन्तु इसमें जल-शुद्धि की प्रक्रिया द्वारा एक ही पदार्थ के जानने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन हैं। अंग ग्रन्थों में ज्ञाताधर्मकथा का शुभ एवं अशुभ दोनों रूपों को प्रकट किया गया है। अनेकान्त के विशिष्ट महत्त्व है। कथा और दर्शन का यह संगम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ सिद्धान्त को समझाने के लिए यह बहुत उपयोगी है। नन्दीफल की के नाम में भी इसका विषय और महत्त्व छिपा हुआ है। उदाहरण कथा यद्यपि अर्ध कथा है किन्तु इसमें रूपक की प्रधानता है। प्रधान धर्म कथाओं का यह प्रतिनिधि ग्रन्थ है। ज्ञातपुत्र भगवान् समुद्री अश्वों के रूपक द्वारा लुभावने विषयों के स्वरूप को स्पष्ट महावीर की धर्म कथाओं को प्रस्तुत करने वाले इस ग्रन्थ का नाम किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा सार्थक है। विद्वानों ने अन्य दृष्टियों से भी इस ग्रन्थ के छठे अध्ययन में कर्मवाद जैसे गरु गंभीर विषय को रूपक नामकरण की समीक्षा की है। द्वारा स्पष्ट किया है। गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान में भगवान् ने तूंबे के उदाहरण से इस बात पर प्रकाश डाला कि मिट्टी दृष्टान्त एवं धर्म कथाएं: के लेप से भारी बना हुआ तूंबा जल में मग्न हो जाता है और लेप ____ आगम ग्रन्थों में कथा-तत्त्व के अध्ययन की दृष्टि से हटने से वह पुनः तैरने लगता है। वैसे ही कर्मों के लेप से आत्मा ज्ञाताधर्मकथा में पर्याप्त सामग्री है। भारी बनकर संसार-सागर में डूबता है और उस लेप से मुक्त होकर इसमें विभिन्न दृष्टान्त एवं धर्म कथाएं हैं, जिनके माध्यम से उर्ध्वगति करता है। दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित जैन तत्त्व-दर्शन को सहज रूप में जन-मानस तक पहुँचाया गया है। किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चारु चंद्रिका मंद और मंदतर ज्ञाताधर्मकथा आगमिक कथाओं का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें कथाओं होती जाती है और शुक्लक्ष में वही चंद्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती की विविधता है और प्रौढ़ता भी। मेघकुमार, थावच्चापुत्र, मल्ली तथा है वैसे ही चन्द्र के सदृश कर्मों की अधिकता से आत्मा की ज्योति द्रौपदी की कथाएँ ऐतिहासिक वातावरण प्रस्तुत करती हैं। प्रतिबुद्धराजा, मंद होती है और कर्म की ज्यों-ज्यों न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी अर्हत्रक व्यापारी, राजा रूक्मी, स्वर्णकार की कथा, चित्रकार ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है। कथा, चोखा परिवाजिका आदि कथाएँ मल्ली की कथा की अवान्तर ज्ञाताधर्मकथा पशुकथाओं के लिए भी उद्गम ग्रन्थ माना कथाएँ हैं। मूलकथा के साथ अवान्तर-कथा की परम्परा की जानकारी जा सकता है। एक ही ग्रन्थ में हाथी, अश्व, खरगोश, कछुए, के लिए ज्ञाताधर्मकथा आधार भूत स्रोत है। ये कथाएँ कल्पना- मयूर, मेढक, सियार आदि को कथाओं के पात्रों के रूप में चित्रित प्रधान एवं सोद्देश्य हैं। इसी तरह जिनपाल एवं जिनरक्षित की किया गया है। मेरूप्रभ हाथी ने अहिंसा का जो उदाहरण प्रस्तुत कथा, तेतलीपुत्र, सुषमा की कथा एवं पुण्डरीक कथा कल्पना किया है, वह भारतीय कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। ज्ञाताधर्मकथा प्रधान कथाएँ हैं। के द्वितीय श्रुतस्कंध में यद्यपि २०६ साध्वियों की कथाएँ हैं। ज्ञातधर्मकथा में दृष्टान्त और रूपक कथाएँ भी हैं। मयूरों के किन्तु उनके ढांचे, नाम, उपदेश आदि एक-से हैं। केवल काली अण्डों के दृष्टान्त से श्रद्धा और धैर्य के फल को प्रकट किया गया है। की कथा पूर्ण कथा है। नारी-कथा की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हैं। २ दो कछुओं के उदाहरण से संयमी और असंयमी साधक के परिणामों ज्ञाताधर्मकथा में भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्ष अंकित को उपस्थित किया गया है। तुम्बे के दृष्टान्त से कर्मवाद को स्पष्ट हैं। प्राचीन भारतीय भाषाओं, काव्यात्मक प्रयोगों, विभिन्न कलाओं किया गया है। दावद्रव नामक वृक्ष के उदाहरण द्वारा आराधक और और विद्याओं, सामाजिक जीवन और वाणिज्य व्यापार आदि के विराधक के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। ये दृष्टान्त कथाएँ सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में ऐसे विवरण उपलब्ध हैं जो प्राचीन भारतीय परवर्ती साहित्य के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं। संस्कृति के इतिहास में अभिनव प्रकाश डालते हैं। इस ग्रन्थ के सूक्ष्म इस ग्रन्थ में कुछ रूपक कथाएँ भी हैं। दूसरे अध्ययन की सांस्कृतिक अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है। कुछ विद्वानों ने इस धना सार्थवाह एवं विजय चोर की कथा आत्मा और शरीर के सम्बन्ध दिशा में कार्य भी किया है जो आगे के अध्ययन के लिए सहायक का रूपक है। सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा पांच व्रतों की रक्षा हो सकता है। यहाँ संक्षेप में ग्रन्थ में अंकित कतिपय सांस्कृतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy