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________________ १७० जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ ने लोहा माना है। यों तो वैदिकों की पुरानी व्यवस्था के अनुसार वे बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।२ अस्पृश्य ठहरते हैं पर आज वे किसी भी उच्च कोटि के ब्राह्मण से चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। हीनकोटि के नहीं माने जा सकते। इस तथ्य को प्राचीन ऋषियों ने भी न गिण्हाइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं।। अनुभव किया था। तभी तो उन्होंने कहा था सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ, भले ही फिर वह थोड़ा क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्राद्याभिरक्षाकृषिशिल्पभेदाता हो या ज्यादा, जो बिना दिये नहीं लेता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।३ शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदिन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ।। दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं। -बरांगचरित सर्ग २५ श्लोक ११ मणसा कायवक्केणं, वं वयं बम माहणं।। प्राचीन शिष्ट पुरुषों ने चार वर्णों का जिन कारणों से जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन प्रतिपादन किया था उन्हीं का इस श्लोक में सुस्पष्ट रूप से वर्गीकरण का मन, वचन और शरीर से कभी सेवन नहीं करता उसे हम ब्राह्मण किया गया है। वे कारण छ: हैं-१ क्रियाविशेष, २ व्यवहारमात्र, ३ कहते हैं। दया, ४ प्राणियों की रक्षा, ५ कृषि और ६ शिल्प। श्लोक के जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। अन्तिम चरण में बतलाया है कि चार वर्गों की सत्ता इन्हीं कारणों से एवं अलितं कामेहि, वं वयं बूम माहणं।। मानी जा सकती है, अन्य किसी भी प्रकार से चार से चार वर्ण नहीं जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त हो सकता है। नहीं होता, इसी प्रकार जो संसार में रहकर भी काम भोगों से सर्वथा ' इनमें प्रारम्भ के दो सामान्य कारण हैं और अन्त के चार अलिप्त रहता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के सूचक हैं आदिपुराण में भी ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति का सुस्पष्ट सर्वप्रथम आचार्य क्रिया विशेष को चार वणों हेतु कहना चाहते हैं, निर्देश किया है। वहाँ बतलाया है कि भरत चक्रवर्ती ने तीन वर्ण के परन्तु उन्हें भय है कि कहीं कोई इस आधार से मनुष्यों के वास्तविक व्रती श्रावकों को ब्राह्मण वर्ण का कहा था और तभी से ब्राह्मण वर्ण भेद न मान बैठे, इसलिए वे कहते हैं कि मनुष्यों को ऐसा कहना कि लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। 'यह अमुक वर्ण का है, यह अमुक वर्ण का है' व्यवहारमात्र है। लोक चार वर्णों के कार्यों का निर्देश करते हुए वहाँ यह श्लोक में ब्राह्मण आदि शब्द के द्वारा कथन करने की रूढ़ि है- कोई ब्राह्मण आया है६.. कहलाता है और कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र। इसके लिए इस कथन ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात्। की अन्य कोई मौलिक विशेषता नहीं है। यदि थोड़ी देर को यह मान वणिजोऽर्थार्जनाच्छद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।। भी लें कि व्यवहार में इन नामों के प्रचलित होने के कोई अन्य कारण जिन्होंने व्रतों को स्वीकार किया है वे ब्राह्मण हैं, जो अवश्य हैं तो वे दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प इनके सिवा और आजीविका के लिए शस्त्र स्वीकार करते हैं, वे क्षत्रिय हैं जो न्यायमार्ग हो ही क्या सकते हैं। यही कारण है कि प्राचीन काल में इन क्रियाओं से अर्थाजन करते हैं वे वैश्य है और जो जघन्य वृत्ति स्वीकार करते के आधार से ब्राह्मण आदि चार वर्णों का नामकरण किया गया था। हैं वे शूद्र हैं। १. ब्राह्मण वर्ण इससे भी यही ज्ञात होता है कि ब्राह्मण वर्ण का मुख्य - पहला कारण दया है। यह अहिंसा का प्रतीक है। अहिंसा आधार आजीविका नहीं है किन्तु व्रतों को स्वीकार करना है। तभी तो आदि पाँच व्रतों को स्वीकार कर उनका पालन करना ही ब्राह्मण वर्ण पद्मचरित में कहा हैकी मुख्य पहचान है। 'ब्राह्मण कौन' इसका निर्देश प्राचीन साहित्य में व्रतस्थमपि चाण्डाल। तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। 'वस्तृत आधारों पर किया है। इसकी व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययन इस श्लोक में आचार्य रविषेण ने कितनी बड़ी बात कहीं में कहा है है। इससे जैन धर्मकी आत्मा निखर उठती है। वे इसमें स्पष्ट रूप तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे। से उस चाण्डाल (चाण्डाल कर्म से आजीविका करनेवाले) को भी जो न हिंसइ तिविहेणं, वं वयं बूम माहणं ॥ ब्राह्मणरूप से स्वीकार करते हैं जो जीवन में व्रतों को स्वीकार जो त्रस स्थावर सभी प्राणियों को भलीभाँति जानकर उनकी करता है। मन, वचन और काय से कभी हिंसा नहीं करता उसे हम ब्राह्मण जैनधर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था का रहस्य क्या है यह कहते हैं। इसमें खोल कर बतलाया गया है। कोई भी मनुष्य अपनी आजीविका कोहा वा दइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, किसी वर्ण की क्यों न करता हो यदि वह व्रतों मुसं न वयईं जो उ, तं वयं बूम माहणं।। का पालन करने लगता है तो वह वर्ण से ब्राह्मण हो जाता है यह जो क्रोधसे, हास्यसे, लोभसे अथवा भयसे असत्य नहीं इसका तात्पर्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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