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________________ तमिल इतिहास लेखन में जैन लेखकों का योगदान शिलप्यधिकारम् कावेरीपत्तन के राजा करिकलन का सिंहल के राजा (गजबाहु से समकालीनता प्रस्तुत करता है। जिससे पूर्वकालीन सिंहलीय काल-गणना का समन्ध शेष भारत की काल गणना के साथ जोड़ा जा सकता है। इस महाकाव्य में तमिल समाज की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक अवस्था का सजीव चित्रण मिलता है विविध धर्मों का सद्भाव, उत्सव व पर्व आदि का भी वर्णन मिलता है। अतः इस ग्रन्थ को दो हजार वर्ष पूर्व के तमिल देश का दर्पण कहा जा सकता है। इसका उत्तर भाग 'मणि मेखले प्रधान महाकाव्यों में से एक है। यद्यपि यह एक बौद्ध लेखक चात्तनार की रचना है। तथापि इसका वर्णन प्रसंगतः अनिवार्य है। इसमें भी इतिहास सम्बन्धी विभिन्न तथ्य हैं। यह ग्रन्थ बौद्ध दर्शन को उच्च स्थान पर रखता है, फिर भी इसमें शिलप्पधिकारम् के समान ही सहिष्णुता झलकती है। इसके बाद 'नीलकेशी' नामक जैन काव्य ग्रन्थ का प्रणयन हुआ, जिसमें पांचाल देश, कुण्डलवर्तनम् नामक नगर, उसके राजा समुद्रसारन, उस प्रदेश के मंदिर, उनमें किये जाने वाले हत्याकांड तथा भूत-पिशाचों का रोचक वर्णन है। इसके कर्त्ता का नाम नहीं ज्ञात है। इसके व्याख्याकार प्रसिद्ध तमिल जैन ग्रन्थ'मेरुमन्थर पुराणम्' ' के रचयिता वामन मुनिवर हैं। पंचमहाकाव्यों में एक 'जीवक चिन्तामणि' जैन मुनि तिरूत्तक्कदेवर की रचना है। इसका समय नवीं शती है। यह एक शृंगार रस पूर्ण रचना है जिसमें तमिल प्रदेश के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का सजीव वर्णन है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस काव्य का मुख्य उद्देश्य अंहिसा धर्म का समर्थन है। कवि चोल कुल के थे। उन्होंने आदर्श साम्राज्य को अपनी कल्पना को मूर्त रुप देने के लिए ही जैन पुराण के अन्तर्गत् जीवकन की कथा को अपने काव्य का विषय बनाया। इस आशय को कवि ने अपने काव्य में आदि से अन्त तक व्यक्त किया है कि जिस प्रकार जीवकन ने कई राजपरिवारों से सम्बन्ध स्थापित कर अपने को महाबली बनाया या वैसे ही चोल राजाओं को भी कई राज परिवारों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करना चाहिये। सम्भवत: इसी प्रेरणा के फलस्वरूप चौल नरेशों ने आसपास के पल्लव, आन्ध्र आदि अन्य राजकुलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ लिया था। चोल नरेश के 'चक्रवर्ती होने का जो स्वप्न कवि ने अपनी रचना में देखा था वह राजेन्द्र चोल के काल में साकार हुआ। दीपंकुडि जयंकोण्डार का 'कलिंगनुप्यरणि' तमिल में एक संग्राम विषयक कविता है जिसमें चोल नरेश कुलोतुंग (ग्यारहवीं (शताब्दी) के कलिंग पर अभियान का वर्णन है। 'परणि' उस विशिष्ट प्रबंध काव्य को कहते हैं, जिसमें सहस्र गजो को समरांगण में मारने वाले वीरवर का प्रभावकारी वर्णन हो। कलिंगचुप्परणि के रचयिता श्रमण संघ के साधु थे यह ग्रन्थ कुलोतुंग के राज्यकाल के अन्त के निकट लिखा गया था और उसी की विजयों का यश गाता है।" इसमें राजा के जन्म तथा यौवन का वर्णन संक्षेप में किया गया है। युवराज होने पर वह दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है जिसका अर्थ यहाँ Jain Education International २०३ उत्तर दिशा में एक दीर्घ अभियान से है, यद्यपि दक्षिण-पूर्व में भी एक युद्ध का उल्लेख है उसकी अनुपस्थिति में पिता की मृत्यु के बाद अराजकता व्याप्त हो जाती है। परन्तु अन्त में नायक लौट आता है, शान्ति स्थापित करके सिंहासन पर अधिकार कर लेता है। तत्पश्चात् कुलोतुंग अपने एक सामन्त को, दूसरे अभियान पर उत्तर में भेजता है, जो कलिंग की सेना को पराजित कर देता है। जिसके परिणामस्वरूप कलिंग का राजा (अनन्तवर्मा) आत्मसमर्पण कर देता है और नियमानुसार कर देना स्वीकार करता है। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय बात है कि बिल्हणकृत 'विक्रमांकदेवचरित' भी उन्हीं घटनाओं का वर्णन करता है जिनका जयकोण्डार ने अपने काव्य में वर्णन किया है, विशेष रुप से चोल सम्राट की मृत्यु के पश्चात आने वाली अराजकता। परणि के अतिरिक्त 'उला', 'कलम्बकम' 'अन्तादि' आदि प्रसिद्ध प्रबन्ध ग्रन्थ थे 'विक्रमशोलन उला' पूर्वकालीन चोल इतिहास पर लागू होने वाले कुछ रोचक प्रसंगों का उल्लेख करता है। जिसमें करिकालिन की पूर्व कथा तथा कुलोतुंग प्रथम के चालुक्य साम्राज्यके अन्दर दूर तक जाकर पश्चिम सागर पर्यन्त पहुंचने वाले अभियानों का वृत्तान्त है। इस ग्रन्थ का मुण्य वर्ण्य विषय चिदम्बरं में नटराज शिव को अर्पित एक देवालय का पुनर्निर्माण है। देवालय के अन्य उल्लेखनीय इतिहास 'मदुरैजलवरलारू' (मदुराय के महान देवालय पर ) और 'श्री रंगम्कोयिलोलुगु' (श्रीरंगम के देवालय पर) में वर्णित है। जैन लेखकों ने तमिल साहित्य के साथ तमिल इतिहास लेखन के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैनाचार्यों ने साधारणतया धार्मिक और नैतिकता के प्रचार-प्रसार हेतु बोधक लघुकथाओं महाकाव्यों आदि की रचना की थी। 'मणिप्रवाल' शैली के प्रवर्तन में भी जैन लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। कलश्री के शासन काल में जब संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं की अधिकता से तमिल को दुर्गति हो रही थी तब जैनाचार्यों ने ही अपनी साहित्य सेवा तथा धर्म प्रचार द्वारा तमिल की रक्षा की थी। जैन लेखकों ने अपने धार्मिक प्रचार का माध्यम तमिल भाषा को बनाया जिसके कारण भाषा तथा धर्म दोनों का साथ-साथ विकास हुआ। जैनाचायाँ के विशुद्ध तमिल प्रेम का एक उदाहरण है 'तिरूनाथ कुन्दूम' (श्रीनाथ गिरि) का शिलालेख । यह शिलालेख तमिल के प्राचीनतम् अभिलेखों में से एक है। संदर्भ १. २. ३. ४. ५. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ७, पं० के० भुजवली शास्त्री, पृ० १०१/ वही, पृ० १०८ शिल्प्पदिकारम, मदुरै काण्ड्म, पद्य १३३ १३६१। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ७, पृ० १५१ भारतीय इतिहास लेखन की भूमिका, प्रो० जगन्नाथ अग्रवाल, पृ० १०८। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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